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________________ 158 [ ज्ञाताधर्म कथा (ऐश्वर्यवान् धनाढ्य सेठों) तलवरों (कोतवालों) यावत् (माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति) सार्थवाह आदि का एवं उत्तर दिशा में वैताढय पर्वत पर्यन्त तथा अन्यं तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का और द्वारका नगरी का अधिपतित्व [नेतृत्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरत्व] करते हुए और पालन करते हुए विचरते थे / थावच्चापुत्र ६-तत्थ णं बारवईए नयरीए थावच्चा णामं गाहावइणी परिवसइ, अड्ढा जाव [दित्ता वित्ता वित्थिन्न-विउल-भवन-सयणासण-जाण-बाहणा वहुधण-जायरूवरयया आओग-पओगसंपत्ता बहुदासीदास-गो-महिस-गवेलगप्पभूया बहुजणस्स] अपरिभूया। तीसे गं थावच्चाए गाहावइणीए पुत्ते थावच्चापुत्ते णामं सत्यवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए' जाव सुरूवे / तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारयं साइरेगअठ्ठवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहिकरण- नक्खत्त-मुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेइ, जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इभकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेइ, बत्तीसओ दाओ जाव बत्तीसाए इब्भकुलबालियाहिं सद्धि विउले सद्दफरिसरसरूववन्नगंधे जाव भुजमाणे विहरइ / / द्वारका नगरी में थावच्चा नामक एक गाथापत्नी (गृहस्थ महिला) निवास करती थी। वह समृद्धि वाली थी यावत् [प्रभावशालिनी थी, विस्तीर्ण और विपुल भवन, शय्या, आसन, यान, वाहन उसके यहाँ थे, वह विपुल स्वर्ण-रजत-धन की स्वामिनी थी, उसके यहाँ लेन-देन होता था, दासियों दासों गायों भैसों एवं बकरियों की प्रचुरता थी] बहुत लोग मिलकर भी उसका पराभव नहीं कर सकते थे। उस थावच्चा गाथापत्नी का थावच्चापुत्र नामक सार्थवाह का बालक पुत्र था। उसके हाथपैर अत्यन्त सुकुमार थे। वह परिपूर्ण पांचों इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीर वाला, प्रमाणोपेत अंगोपांगों से सम्पन्न और चन्द्रमा के समान सौम्य प्राकृति वाला था। सुन्दर रूपवान् था। __ तत्पश्चात् उस थावच्चा गाथापत्नी ने उस पुत्र को कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ जानकर शुभतिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में कलाचार्य के पास भेजा। फिर भोग भोगने में समर्थ (युवा) हुया जाकर इभ्यकुल की वत्तीस कुमारिकानों के साथ एक ही दिन में पाणिग्रहण कराया। प्रासाद ग्रादि बत्तीस-बत्तीस का दायजा दिया अर्थात् थावच्चापुत्र की बत्तीस पत्नियों के लिए बत्तीस महल ग्रादि सब प्रकार की सामग्री प्रदान की। वह इभ्य कुल की बत्तीस कुमारिकाओं के साथ विपुल शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण और गंध का भोग-उपभोग करता हुअा रहने लगा। अरिष्टनेमि का समवसरण ७-तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटुनेमी सो चेव वश्णओ, दसधणुस्सेहे, नीलुप्पलगवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पयासे, अट्ठारसहिं समणसाहस्सोहि सद्धि संपरिवडे, चत्तालीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धि संपरिडे, पुन्वाणुन्वि चरमाणे जाव गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव बारवई नयरी, जेणेव रेवयगपचए, जेणेव नंदणवणे उज्जाणे, जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ / परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ। 1. प्रथम अ. 15 - - - -- --- - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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