________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग ] [ 535 ब्रह्मचारिणी प्रार्या हो गई / तदनन्तर उस काली आर्या ने पुष्पचूला पार्या के निकट सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा बहुत-से चतुर्थभक्त-उपवास, [षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशमभक्त, अर्धमासखमण, मासखमण] अादि तपश्चरण करती हुई विचरने लगी। २५-तए णं सा काली अज्जा अन्नया कयाइं सरीरवाउसिया जाया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ, पाए धोवइ, सीसं धोवइ, मुहं धोवइ, थणंतराइं धोवइ, कवखंतराणि धोवइ, गुज्झंतराई धोवइ, जत्य जत्थ वि य णं ठाणं वा सेज्ज वा णिसीहियं वा चेएइ, तं पुवामेव अब्भुक्खेत्ता पच्छा आसयइ वा सयइ वा / तत्पश्चात् किसी समय, एक बार काली प्रार्या शरीरबाकुशिका (शरीर को साफ-सुथरा रखने की वृत्ति वाली—शरीरासक्त) हो गई / अतएव वह बार-बार हाथ धोने लगी, पैर धोने लगी, सिर धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनों के अन्तर धोने लगी, कांखों के अन्तर-प्रदेश धोने लगी और गुह्यस्थान धोने लगी / जहाँ-जहाँ वह कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करती थी, उस स्थान पर पहले जल छिड़क कर बाद में बैठती अथवा सोती थी। २६-तए णं सा पुष्फजूला अज्जा कालि अज्जं एवं बयासी-नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिए ! समणोणं णिम्गंथीणं सरीरबाउसियाणं होत्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिए, सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवसि जाव आसयाहि वा सयाहि वा, तं तुमं देवाणुप्पिए ! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि।' तब पुष्पचला आर्या ने उस काली आर्या से कहा-'देवानुप्रिये ! श्रमणी निन्थियों को शरीरबकुशा होना नहीं कल्पता और तुम देवानुप्रिये ! शरीरबकुशा हो गई हो / वार-वार हाथ धोती हो, यावत् पानी छिड़ककर बैठती और सोती हो / अतएव देवानुप्रिये ! तुम इस पापस्थान की अालोचना करो, यावत् प्रायश्चित्त अंगीकार करो।' २७-तए णं सा काली अज्जा पुष्फचूलाए एयमझें नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिट्ठइ। तब काली प्रार्या ने पुष्पचूला प्रार्या की यह बात स्वीकार नहीं की। यावत् वह चुप बनी रही। २८--तए गं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ कालि अज्ज अभिक्खणं अभिक्खणं हीलेंति, णिदंति, खिसंति, गरिहंति, अवमण्णंति, अभिक्खणं अभिवखणं एयमद्वं निवारेति / तत्पश्चात् वे पुष्पचूला प्रादि आर्याएँ, काली आर्या की बार-बार अबहेलना करने लगीं, निन्दा करने लगीं, चिढ़ने लगीं, गहीं करने लगीं, अवज्ञा करने लगीं और बार-बार इस अर्थ (निषिद्ध कर्म) को रोकने लगीं। २९-तए णं तीसे कालीए अज्जाए समणीहि णिग्गंथीहि अभिक्खणं अभिक्खणं होलिज्जमाणीए जाव निवारिज्जमाणीए इमेयारवे अज्झिथिए जाव समुप्पज्जित्था---'जया णं अहं अगारवासमझे वसित्था, तया णं अहं सयंवसा, जपभिई च अहं मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, तप्पभिई च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org