________________ शुक्राचार्य ने नीतिसार ग्रन्थ 13 में प्रकारान्तर से चौसठ कलाएं बताई हैं। किन्तु विस्तारभय से हम यहां उन्हें नहीं दे रहे हैं / शुक्राचार्य का अभिमत है कि कला वह अद्भुत शक्ति है कि एक गूगा व्यक्ति जो वर्णोञ्चारण नहीं कर सकता है, उसे कर सके।११४ प्राचीन काल में कलाओं के व्यापक अध्ययन के लिए विभिन्न चिन्तकों ने विभिन्न कलानों पर स्वतन्त्र ग्रन्थों का निर्माण किया था। अत्यधिक विस्तार से उन कलाओं के संबंध में विश्लेषण भी किया था। जैसे, भारत का 'नाट्यशास्त्र' वात्स्यायन का 'कामसूत्र' चरक और सुश्रुत की संहिताएँ, नल का 'पाक दर्पण', पालकाप्य का 'हस्यायुर्वेद', नीलकण्ठ की 'मातंगलीला', श्रीकुमार का "शिल्परत्न', रुद्रदेव का 'शयनिक शास्त्र' प्रादि / अतीत काल में अध्ययन बहत ही व्यापक होता था। बहत्तर कलानों में या चौसठ कलाओं में जीवन की संपूर्ण विधियों का परिज्ञान हो जाता था / लिपि और भाषा कलानों के अध्ययन व अध्यापन के साथ ही उस युग में प्रत्येक व्यक्ति को और विशेषकर समृद्ध परिवार में जन्मे हुए व्यक्तियों की बहुभाषाविद् होना भी अनिवार्य था। संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के अतिरिक्त अठारह देशी भाषाओं का परिज्ञान यावश्यक था। प्रस्तुत सूत्र में मेधकुमार के वर्णन में 'अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासा विसारए' यह मूल पाठ है। पर वे अठारह भाषाएँ कौनसी थीं, इसका उल्लेख मूल पाठ में नहीं है। प्रोपपातिक आदि में भी इसी तरह का पाठ मिलता है, किन्तु वहाँ पर भी अठारह देशी भाषाओं का निर्देश नहीं है, नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने 15 प्रस्तुत पाठ पर विवेचन करते हए अष्टादश लिपियों का उल्लेख किया है, पर अठारह देशी भाषाओं का नहीं। प्रभयदेव ने विभिन्न देशों में प्रचलित अठारह लिपियों में विशारद लिखा है। समवायांग, प्रज्ञापना विशेषावश्यकभाष्य की टीका और कल्पसुत्रटीका में अठारह लिपियों के नाम मिलते हैं। पर सभी नामों में यत्किचित् भिन्नता है। हम यहाँ तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले जिज्ञासुओं के लिए उनके नाम प्रस्तुत कर रहे हैं। समवायांग११६ के अनुसार (1) ब्राह्मी (2) यावनी (3) दोषउपरिका (4) खरोष्टिका (5) खरशाविका (पुष्करसारि) (6) पाहारातिगा (7) उच्चत्तरिका (8) अक्षरपृष्टिका (9) भोगवतिका (10) वैणकिया (11) निण्हविका (12) अंकलिपि (13) गणितलिपि (14) गंधर्वलिपि (भूतलिपि) (15) प्रादर्शलिपि (16) माहेश्वरी (17) दामिलीलिपि (द्रावडी) (18) पोलिन्दी लिपि प्रज्ञापना के अनुसार (1) ब्राह्मी (2) यावनी (3) दोसापुरिया (4) खरोष्ठी (5) पुखरासारिया (6) भोगवइया (भोगवती) 113. नीतिसार 4-3 114. शक्तो मूकोऽपि यत् कर्तुकलासंज्ञं तु तत् स्मृतम् / / 115. ज्ञातासूत्र 1 टीका 116. समवायांग, समवाय 18 117. प्रज्ञापना 1137 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org