________________ है / यात्रा, यज्ञ, अव्याबाध के संबंध में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। शब्दजाल में उलझाने के लिए ऐसे प्रश्न समुपस्थित किये जिनमें सामान्य व्यक्ति उलझ सकता है। किन्तु थावच्चामुनि ने उन शब्दों का सही अर्थ कर पोथीपंडितों की वाणी मक बना दी, धर्म का मूल विनय बताया। इस अध्याय में शैलक राजषि का भी वर्णन है, जो उग्र साधना करते हैं। उत्कृष्ट तप:साधना से उनका शरीर व्याधि से ग्रसित हो गया। उनका पुत्र राजा मण्डूक राजषि के उपचार के लिए प्रार्थना करता है और संपूर्ण उपचार की व्यवस्था करने से वे पूर्ण रूप से रोगमुक्त भी हो जाते हैं। यहाँ पर स्मरणीय है कि रोग परीपह है, उत्सर्ग मार्ग में श्रमण औषध ग्रहण नहीं करता, पर अपवाद मार्ग में वह औषध का उपयोग भी करता है / गहस्थ का कर्तव्य है कि वह श्रमण-श्रमणियों की ऐसे प्रसंग पर सेवा का सुनहरा लाभ ले। जो गृहस्थ उस महान लाभ से वंचित रहता है, वह बहुत बड़ी सेवा की निधि से वंचित रहता है। जब शैलक राजर्षि साधना की दृष्टि से शिथिल हो जाते हैं तब उनके अन्य शिष्यगण अन्यत्र विहार कर जाते हैं किन्त पंथकमनि अपनी अपर्व सेवा से एक आदर्श शिष्य का उत्तरदायित्व निभाते हैं। शिष्य के द्वारा चरणस्पर्श करते ही गुरु की प्रसूप्त अात्मा जग जाती है। बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण है और वह अत्यन्त प्रेरणदायी छठे अध्ययन का संबंध राजगह नगर से है। इस अध्ययन में कर्मवाद जैसे गुरु गंभीर विषय को रूपक के द्वारा स्पष्ट किया है। गणधर गौतम की जिज्ञासा के समाधान में भगवान ने तंबे के उदाहरण से इस बात पर प्रकाश डाला कि मिट्टी के लेप से भारी बना हा तंबा जल में मग्न हो जाता है और लेप हटने से वह पुनः तैरने लगता है। वैसे ही कर्मों के लेप से प्रात्मा भारी बनकर संसार-सागर में डुबता है और उस लेप से मुक्त होकर ऊर्ध्वगति करता है। सातवें अध्ययन में धन्ना सार्थवाह की चार पुत्रवधुओं का उदाहरण है / श्रेष्ठी अपनी चार पुत्रवधुनों की परीक्षा के लिए पांच शालि के दाने उन्हें देता है। प्रथम पुत्रवधु ने फेंक दिये / दूसरी ने प्रसाद समझकर खा लिये। तीसरी ने उन्हें संभालकर रखा और चौथी ने खेती करवाकर उन्हें खूब बढ़ाया / श्रेष्ठी ने चतुर्थ रोहिणी को महस्वामिनी बनाया। वैसे ही गुरु पंच दाने रूप महाव्रत-शाली के दाने शिष्यों को प्रदान करता है। कोई उसे नष्ट कर डालता है, दूसरा उसे खान-पान का साधन बना लेता है। कोई उसे सुरक्षित रखता है और कोई उसे उत्कृष्ट साधना कर अत्यधिक विकसित करता है। प्रो. टाइमन ने अपनी जर्मन पुस्तक-"बुद्ध और महावीर" में बाइबिल की मैथ्यू और लक की कथा के साथ प्रस्तुत कथा की तुलना की है। वहाँ पर शालि के दानों के स्थान पर 'टेलेण्ट' शब्द पाया है। टेलेण्ट उस युग में प्रचलित एक सिक्का था / एक व्यक्ति विदेश जाते समय अपने दो पुत्रों को दस-दस टेलेण्ट दे गया था। एक ने व्यापार द्वारा उसकी प्रत्यधिक वृद्धि की / दूसरे ने उन्हें जमीन में रख लिए / लौटने पर पिता प्रथम पुत्र पर बहत प्रसन्न हुआ। पाठवें अध्ययन में तीर्थंकर मल्ली भगवती का वर्णन है, जिन्होंने पूर्व भव में माया का सेवत किया। माया के कारण उनका आध्यात्मिक उत्कर्ष जो साधना के द्वारा हा था, उसमें बाधा उपस्थित हो गई। तीर्थकर सभी पुरुष होते हैं, पर मल्ली भगवती स्त्री हुई / इसे जैन साहित्य में एक आश्चर्यजनक घटना माना है। मल्ली भगवती ने अपने पर मुग्ध होने वाले छहों राजाओं को, शरीर की अशुचित्ता दिखा कर प्रतिबुद्ध किया। उन्हीं के साथ दीक्षा ग्रहण की। केवलज्ञान प्राप्त किया। तीर्थ स्थापना कर तीर्थंकर बनीं। 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org