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________________ पेतवत्थ '55 ने द्वारका को कंबोज का एक नगर माना है। डा. मलशेखर 56 ने प्रस्तुत कथन का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि संभव है यह कंबोज ही कंसभोज हो जो कि अंधकवृष्णि के दस पुत्रों का देश था / डा. मोतीचन्द 15. कंबोज को पामीर प्रदेश मानते हैं और द्वारका को बदरवंशा के उत्तर में अवस्थित दरवाजनगर कहते हैं / रायस डेविड्स१५८ ते कंबोज को द्वारका की राजधानी लिखा है। उपाध्याय भरतसिंह' 56 ने लिखा है द्वारका सौराष्ट्र का एक नगर था, संप्रति द्वारका कस्बे से आगे 20 मील की दूरी पर कच्छ की खाड़ी में एक छोटा सा तापू है। वहां एक दूसरी द्वारका है जो बेट द्वारका कही जाती है। बांबे गेजेटियर१६० में कितने ही विद्वानों ने द्वारिका की अवस्थिति पंजाब में मानने की संभावना की है। डॉ. अनन्त सहाशिव अल्तेकर 161 ने लिखा है-प्राचीन द्वारका समुद्र में डूब गई, प्रतः द्वारका की अवस्थिति का निर्णय करना कठिन है।। प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट है कि द्वारका एक विशिष्ट नगरी थी। वह लंका के सदश ही स्वर्णपुरी थी। सम्राट श्रीकृष्ण तीन खण्ड के अधिपति थे। उनकी वह राजधानी थी। थावच्चा नामक सेठानी महान् प्रतिभासम्पन्न नारी थी। आधुनिक युग में जिस तरह से नारी नेतृत्व करने के लिए उत्सुक रहती है, वह सर्वतंत्र स्वतन्त्र होकर संचालन करना पसन्द करती है, वैसे ही थावच्चा घर की मालकिन थी / वह संपूर्ण घर की देखरेख करती थी। उसी के नाम का अनुसरण उसके पुत्र के लिए किया गया। भगवान अरिष्टनेमि के पावन प्रवचन को श्रवण कर थावच्चाकुमार के अन्तर्मानस में बैराग्य का पयोधि उछालें मारने लगा। उसने अपनी बत्तीस पत्नियों का परित्याग कर संयमसाधना के कठोर महामार्ग पर बढ़ना चाहा / माता के अनेक प्रकार से समझाने और अनुनय करने पर भी अन्त में पुत्र के वैराग्य की विजय हुई। थावच्चा दीक्षोत्सव मानने के लिए स्वयं सम्राट् कृष्ण के पास पहुँचती है और दीक्षोत्सव के लिए छत्र चामर मांगती है / श्रीकृष्ण ने स्वयं जाकर कुमार की परीक्षा ली। थावच्चाकूमार ने कहा-नाथ, मेरे दो शत्र हैं। पाप यदि उन शत्रयों से मेरी रक्षा कर सकें तो मैं संयम स्वीकार नहीं करूगा। __ श्रीकृष्ण ने पूछा-वे शत्रु कौन हैं जो तुम्हें परेशान कर रहे हैं ? उसने कहा -एक वृद्धावस्था है जो निरन्तर निकट आ रही है और दूसरी मृत्यु है। श्रीकृष्ण ने कहा इन शत्रयों को पराजित करने का सामर्थ्य मुझमें भी नहीं है। कुमार परीक्षा में खरा उतरा / श्रीकृष्ण ने द्वारका में उद्घोषणा करवाई कि जो कोई भी संयमसाधना के पथ पर बढ़ना चाहे उसके परिवार का भरण-पोषण मैं करूमा। इस उद्घोषणा से एक हजार व्यक्ति थावच्चाकुमार के साथ प्रव्रज्या लेने के लिए प्रस्तुत हए / श्रीकृष्ण ने अभिनिष्क्रमण महोत्सव मनाया। प्रस्तुत कथानक में ऐतिहासिक पुरुष श्रीकृष्ण वासुदेव के अन्तर्मानस में अर्हत् धर्म के प्रति कितनी गहरी निष्ठा थी, यह स्पष्ट रूप से व्यक्त होती है। एक महिला भी उनके पास सहर्ष पहुँच सकती थी। और अ की बात उनसे कह सकती थी / वे प्रत्येक प्रजा की बात को शांति से श्रवण करते और समस्याओं का समाधान करते। इसी अध्याय में अनेक दार्शनिक गुत्थियों को भी सुलझाया गया है। शौचधर्म की मान्यताओं का दिग्दर्शन करते हए जैनधर्मसम्मत शौचधर्म का प्रतिपादन किया है। जैनदर्शन ने द्रव्यशौच के स्थान पर भावशौच को महत्त्व दिया 155. पेतवत्थु भाग 2, पृ. 9 156. The Dictionary of Pali proper Names. भाग 1. पृ. 1126 157. Geographical & Economic Studies in Mahabharatha. P. 32-40 158, Buddist India P. 28 159. बौद्धकालीन भारतीय भूगोल पृ. 487 बांबे गेजेटियर भा. 1. पार्ट 1.5.11 का टिप्पण / 161. इण्डियन एण्टिक्वेरी, सन् 1925, सप्लिमेंट पृ. 25 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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