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________________ बहतकल्प'४० के अनुसार द्वारका के चारों ओर पत्थर का प्राकार था। त्रिषष्ठिशलाका पुरुष 141 चरित्र में प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि द्वारका 12 योजन प्रायामवाली और नौ योजन विस्तृत थी। वह रलमयी थी। उसके सन्निकट अठारह हाथ ऊँचा, नौ हाथ भूमिगत और बारह हाथ चौड़ा सभी ओर खाई से घिरा हुमा एक सुन्दर किला था। बड़े सुन्दर प्रासाद थे। रामकष्ण के प्रासाद के पास प्रभासा नामक सभा थी। उसके समीप पूर्व में रैवतक गिरि, दक्षिण में माल्यवान शैल, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गन्धमादन गिरि थे / प्राचार्य हेमचन्द्र 42 प्राचार्य शीलांक 43 देवप्रभसरि४ प्राचार्य जिनसेन'४५ प्राचार्य गुणभद्र प्रभृति श्वेतांबर व दिगम्बर परम्परा के ग्रंथकारों से और वैदिक हरिबंशपुराण,४७ विष्णुपुराण और श्रीमद्भागवत 46 आदि में द्वारका को समुद्र के किमारे माना है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने द्वारकागमन के सम्बन्ध में युधिष्ठिर से कहा-मथुरा को छोड़कर हम कुशस्थली नामक नगरी में पाये जो रैवतक पर्वत से उपशोभित थी। वहाँ दुर्गम दुर्ग का निर्माण किया। अधिक द्वारों वाली होने से द्वारवती कहलाई।" महाभारत जनपर्व की टीका 150 में नीलकंठ ने कुशावर्त का अर्थ द्वारका किया है। प्रभुदयाल मित्तल 152 ने लिखा है-शूरसेन जनपद से यादवों के प्राजाने के कारण द्वारका के उस छोटे से राज्य की अत्यधिक उन्नति हुई / वहाँ पर दुर्भद्य दुर्ग और विशाल नगर का निर्माण कराया गया और अंधकबष्णि संघ के एक शक्तिशाली यादव राज्य के रूप में संगठित किया गया। भारत के समुद्र तट का वह सुदृढ राज्य विदेशी अनार्यों के प्राक्रमण के लिए देश का एक सजग प्रहरी बन गया / गुजराती में 'द्वार' का अर्थ बन्दरगाह है / द्वारका या द्वारावती का अर्थ बन्दरगाहों की नगरी है। उन बन्दरगाहों से यादवों ने समुद्रयात्रा कर विराट सम्पत्ति अजित की थी। हरिवंशपुराण' 53 में लिखा है-द्वारका में निर्धन, भाग्यहीन, निर्बल तन और मलिन मन का कोई भी व्यक्ति नहीं था। वायुपुराण आदि के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि महाराजा रेवत ने समुद्र के मध्य कुशस्थली नगरी वसाई थी। वह मानत जनपद में थी। वह कुशस्थली श्रीकृष्ण के समय द्वारका या द्वारवती के नाम से पहचानी जाने लगी। घटजातक 154 का अभिमत है कि द्वारका के एक प्रोर विराट समुद्र अठखेलियां कर रहा था तो दूसरी पोर गगनचुम्बी पर्वत था / डा. मलशेखर का भी यही मन्तव्य है कि 140. बृहत्कल्प भाग 2, 251 141. त्रिषष्टि शलाका. पर्व 8. सर्ग 5, पृ. 92 142. त्रिषष्ठि. पर्व, 8, सर्ग 5, पृ. 92 143. चउप्पन महापुरिसचरियं 144. पाण्डवचरित्र देवप्रभसूरिरचित 145. हरिवंशपूराण 41/1919 146. उत्तरपुराण 71/20-23, पृ. 376 147. हरिवंशपुराण 2/54 148. विष्णुपुराण 5/23/13 149. श्रीमद्भागवत 10 अ. 50/50 150. महाभारत सभापर्व अ. 14 151. (क) महाभारत जनपर्व प्र. 160 श्लो. 50/ (ख) प्रतीत का अनावरण पृ. 163 152. द्वितीय खंड ब्रज का इतिहास पृ. 47 153. हरिबंशपुराण 2/58/65 154. जातक (चतुर्थ खंड) पृ. 284 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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