________________ है। 133 भारत की दस प्रमुख राजधानियों में एक राजधानी वाराणसी भी थी / यूवान च प्रांग ने वाराणसी को देश और नगर दोनों माना है। उसने वाराणसी देश विस्तार 4000 ली और नगर का विस्तार लम्बाई में 18 ली, चौड़ाई में 6 ली बतलाया है।३५ / जातक के अनुसार काशी राज्य का विस्तार 300 योजन था / वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी। प्रस्तुत नगर वरुणा और प्रसी इन दो नदियों के बीच में अवस्थित था, अतः इसका नाम वाराणसी पड़ा / यह निरुक्त नाम है। भगवान् पार्श्वनाथ प्रादि का जन्म भी इसी नगर में हुप्रा था। वाराणसी के बाहर मृत-गंगातीर नामक एक द्रह (ह्रद) था जिसमें रंग-बिरंगे कमल के फूल महकते थे / विविध प्रकार की मछलियां और कूर्म तथा अन्य जलचर प्राणी थे। दो कूर्मों ने द्रह से बाहर निकलकर अपने अंगोपांग फैला दिये। उसी समय दो शृगाल प्राहार की अन्वेषणा करते हुए वहाँ पहुँचे। कर्मों ने शृगालों की पदध्वनि सुनी, तो उन्होंने अपने शरीर को समेट लिया। शृगालों ने बहुत प्रयास किया पर बे कूर्मों का कुछ भी न कर सके / लम्बे समय तक प्रतीक्षा करने के बाद एक कर्म ने अपने अंगोपांगों को फैला दिया जिससे उसे शृगालों ने चीर दिया। जो सिकूड़ा रहा उसका बाल भी बांका न हमा। उसी तरह जो साधक अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से वश में रखता है उसको किचित् भी क्षति नहीं होती / सूत्रकृतांग 37 में भी बहुत ही संक्षेप में कूर्म के रूपक को साधक के जीवन के साथ सम्बन्धित किया है। श्रीमद् भगवद्गीता में भी स्थितप्रज्ञ' के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए कछुए का दृष्टान्त देते हुए कहा, जैसे-वह अपने अंगों को, बाख भय उपस्थित होने पर, समेट लेता हैं वैसे ही साधकों को विषयों से इन्द्रियों को हटा लेना चाहिए / तथागत बुद्ध ने भी साधकजीवन के लिए कूर्म का रूपक प्रयुक्त किया है। इस तरह कर्म का रूपक जैन बौद्ध और वैदिक प्रादि सभी धर्मग्रन्थों में इन्द्रियनिग्रह के लिए दिया गया है / पर यहाँ कथा के माध्यम से देने के कारण प्रत्यधिक प्रभावशाली बन गया है। पाँचवें अध्ययन का सम्बन्ध विश्वविश्रुत द्वारका नगरी से है। श्रमण और वैदिक दोनों ही परम्पराओं के ग्रन्थों में द्वारका की विस्तार से चर्चा है। वह पूर्व-पश्चिम में 12 योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में नौ योजन विस्तीर्ण थी / कुबेर द्वारा निर्मित सोने के प्राकार वाली थी, जिस पर पांच वर्णवाली मणियों के कंगूरे थे / बड़ी दर्शनीय थी। उसके उत्तर-पूर्व में रैवतक नामक पर्वत था। उस पर नंदवन नामक उद्यान था। कृष्ण वहाँ के सम्राट थे।१38 (ग) दीघनिकाय-महावीरपरिनिव्वाण सुत्त 133. व्याख्याप्रज्ञप्ति 15, पृ० 387 134. -(क) स्थानांग 10 (ख) निशीथ 9-19 135. यूनान, चुांग्स ट्रेवेल्स इन इण्डिया, भा॰ 2, पृ० 46-48 136. धजविहे?जातक-जातक भाग 3 पृ० 454 137. जहा कुम्मेसअंगाई, सए देहे समाहरे / एवं पावाई मेहावी, प्रज्झप्पेण समाहरे // --सूत्रकृतांग 138, यदा संहरते चायं कर्मोगानीय सर्वशः / इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। -श्रीमद्भगवद्गीता 2-58 139. ज्ञातासूत्र 1-5 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org