________________ तृतीय अध्ययन की कथा का सम्बन्ध चम्पा नगरी से है / चम्पा नगरी महावीर युग की एक प्रसिद्ध नगरी थी। स्थानांग 27 में दस राजधानियों का उल्लेख है और दीघनिकाय में जिन छह महानगरियों का वर्णन है उनमें एक चम्पा नगरी भी है। प्रोपपातिक में विस्तार से चम्पा का निरूपण है। प्राचार्य शय्यंभव ने दशवकालिकसूत्र की रचना चम्पा में ही की थी। सम्राट श्रेणिक के निधन के पश्चात् उसके पुत्र कुणिक ने चम्पा को अपनी राजधानी बनाया था। चम्पा उस युग का प्रसिद्ध व्यापार केन्द्र था। कनिंघम' 28 ने भागलपुर से 24 मील पर पत्थरघाट या उसके प्रासपास चम्पा की अवस्थिति मानी है। फाहियान ने पाटलीपुत्र से अठारह योजन पूर्व दिशा में गंगा के दक्षिण तट पर चम्पा की स्थिति मानी है / महाभारत'२६ में चम्पा का प्राचीन नाम मालिनी या मालिन मिलता है। जैन बौद्ध और वैदिक परम्परा के साहित्य के अनेक अध्याय चम्पा के साथ जुड़े हुए हैं। विनयपिटक (1, 179) के अनुसार भिक्षुत्रों को बुद्ध ने पादुका पहनने की अनुमति यहाँ पर दी थी। सुमंगलविलासिनी के अनुसार महारानी ने नगरापोक्खरिणी नामक विशाल तालाब खुदवाया था, जिसके तट पर बुद्ध विशाल समूह के साथ बैठे थे। (दीघनिकाय 1, 111) राजा चम्प ने इसका नाम चम्पा रखा था। वहाँ के दो श्रेष्ठीपुत्रों में पय-पानीवत् प्रेम था। एक दिन उन्होंने उपवन में मयूरी के दो अण्डे देखे / दोनों ने एक-एक अण्डा उठा लिया ! एक ने बार-बार अण्डे को हिलाया जिससे वह निर्जीव हो गया। दूसरे ने पूर्ण निष्ठा के साथ रख दिया तो मयूर का बच्चा निकला और कुशल मयूरपालक के द्वारा उसे नत्यकला में दक्ष बनाया / एक श्रद्धा के अभाव में मोर को प्राप्त न कर सका, दूसरे ने निष्ठा के कारण मयुर को प्राप्त किया। इस रूपक के माध्यम से यह स्पष्ट किया है--संशयात्मा विनश्यति और दूसरा श्रद्धा के द्वारा सिद्धि प्राप्त करता है----श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् / श्रमणधर्म व श्रावकधर्म की प्राराधना व साधना पूर्ण निष्ठा के साथ करनी चाहिए। और जो निष्ठा के साथ साधना करता है वह सफलता के उच्च शिखर की स्पर्श करता है। श्रद्धा के महत्त्व को बताने के लिए यह रूपक बहुत ही सटीक है। इस कथा के वर्णन से यह भी पता लगता है कि उस युग में पशुनों पक्षियों को भी प्रशिक्षण दिया जाता था, पशु-पक्षी गण प्रशिक्षित होकर ऐसी कला प्रदर्शित करते थे कि दर्शक मंत्र-मुग्ध हो जाता था। ___ चतुर्थ अध्ययन की कथा का प्रारम्भ वाराणसी से होता है। वाराणसी प्रागैतिहासिक काल से ही भारत की एक प्रसिद्ध नगरी रही है। जैन बौद्ध और वैदिक परम्परानों के विकास, अभ्युदय एवं समत्थान के ऐतिहासिक क्षणों को उसने निहारा है। प्राध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक चिन्तन के साथ ही भौतिक सुख-सुविधाओं का पर्याप्त विकास वहाँ पर हया था / वैदिक परम्परा में वाराणसी को पावन तीर्थ१3० माना। शतपथब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में वाराणसी से सम्बन्धित अनेक अनुश्रुतियां हैं। बौद्ध जातकों में वाराणसी के वस्त्र और चन्दन का उल्लेख' 31 है और उसे कपिलवस्तु, बुद्धगया के समान पवित्र स्थान माना है। बुद्ध का और उनकी परम्परा के श्रमणों का वाराणसी से बहुत ही मधुर सम्बन्ध रहा। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग वहाँ बिताया 32 | व्याख्याप्रज्ञप्ति में साढ़े पच्चीस आर्य देशों एवं सोलह महाजनपदों में काशी का उल्लेख 127. स्थानांग 10-717 128. The Ancient Geography of India. Page 546-547. 129. महाभारत XII, 56-7, (ख) मत्स्यपुराण 48, 97 (ग) वायुपुराण 99, 105-6, (घ) हरिवंशपुराण 32,49 130. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ० 468 131. सम्पूर्णानन्द अभिनन्दन ग्रन्थ---"काशी की प्राचीन शिक्षापद्धति और पंडित" 132. विनयपिटक भा० 2, 359-60 (ख) मज्झिम० 1, 170 (ग) कथावत्यु 97, 559, (घ) सौन्दरनन्दकाव्या // श्लो० 10-11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org