________________ भरत१२२ के नाट्यशास्त्र में सात भाषामों का उल्लेख मिलता, है—मागधी, प्रावन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, बहिहका, दक्षिणात्य और अर्धमागधी। जिनदासगणिमहत्तर 123 ने निशीथचूणि में मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्नाटक, द्रविड, गौड, विदर्भ इन पाठ देशों की भाषाओं को देशी भाषा कहा है। 'बहत्कल्पभाष्य' में प्राचार्य संघदासगणि 124 ने भी इन्हीं भाषाओं का उल्लेख किया है। 'कुवलयमाला१२५ में उद्योतनसूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कोर, ढक्क, सिन्धु, मरू गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताजिक), कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र इन सोलह भाषामों का उल्लेख किया है। साथ ही सोलह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। डा. ए. मास्टर' 26 का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में प्रौड़ और द्राविडी भाषाएँ मिला देने से अठारह भाषाएँ, जो देशी हैं, हो जाती हैं / प्रथम अध्ययन के अध्ययन से महावीरयुगीन समाज और संस्कृति पर भी विशेष प्रकाश पड़ता है। उस समय की भवन- निर्माणकला, माता-पिता-पुत्र प्रादि के पारिवारिक सम्बन्ध, विवाहप्रथा, बहुपत्नीप्रथा, दहेज, प्रसाधन, आमोद-प्रमोद, रोग और चिकित्सा, धनुर्विद्या, चित्र और स्थापत्यकला, आभूषण, वस्त्र, शिक्षा और विद्याभ्यास तथा शासनव्यवस्था आदि अनेक प्रकार की सांस्कृतिक सामग्री भी इसमें भरी पड़ी हैं। द्वितीय अध्ययन में एक कथा है-धन्ना राजगह का एक लब्धप्रतिष्ठ श्रेष्ठी था। चिर प्रतीक्षा के पश्चात् उसको एक पुत्र प्राप्त होता है / श्रेष्ठी पंथक नाम के एक सेवक को उसकी सेवा में नियुक्त किया। राजगृह के बाहर एक भयानक खंडहर में विजय चोर रहता था। वह तस्करविद्या में निपुण था / पंथक की दृष्टि चुराकर वह श्रेष्ठीपुत्र देवदत्त को प्राभूषणों के लोभ से चुरा लेता है और बालक की हत्या कर देता है। वह चोर पकड़ा गया और कारागह में बन्द कर दिया गया / किसी अपराध में सेठ भी उसी कारागृह में वन्द हो गये, जहाँ पर विजय चोर था / श्रेष्ठी के लिए बढ़िया भोजन घर से प्राता। विजय चोर की जबान उस भोजन को देखकर लपलपाती। पर, अपने प्यारे एकलौते पुत्र के हत्यारे को सेठ एक ग्रास भी कसे दे सकता था ? दोनों एक ही बेड़ी में जकड़े हए थे। जब सेठ की शौचनिवत्ति के लिए भावना प्रबल हुई तो वह एकाकी जा नहीं सकता था / उसने विजय चोर से कहा / उसने साफ इन्कार कर दिया / अन्त में सेठ को विजय चोर की शर्त स्वीकार करनी पड़ी कि प्राधा भोजन प्रतिदिन तुम्हें दूंगा। श्रेष्ठीपत्नी ने सुना तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुई / कारागृह से मुक्त होकर श्रेष्ठी घर पहुँचा तो भद्रा ने कहा कि तुमने महान् अपराध किया है। श्रेष्ठी ने अपनी विवशता बताई। प्रस्तुत कथाप्रसंग को देकर शास्त्रकार ने यह प्रतिपादन किया है कि सेठ को विवशता से पुत्र -घातक को भोजन देना पड़ता था। वैसे साधक को भी संयमनिर्वाह हेतु शरीर को आहार देना पड़ता है, किन्तु उसमें शरीर के प्रति किचित् भी प्रासक्ति नहीं होती। श्रमण की पाहार के प्रति किस तरह से अनासक्ति होनी चाहिए, कथा के माध्यम से इतना सजीव चित्रण किया गया है। श्रेष्ठी ने जो भोजन तस्कर को प्रदान किया था उसे अपना परम स्नेही और हितैषी समझकर नहीं किन्तु अपने कार्य की सिद्धि के लिए। वैसे ही श्रमण भी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उपलब्धि के लिए पाहार ग्रहण करता है। पिण्डनियुक्ति आदि में श्रमण के आहार ग्रहण करने के सम्बन्ध में गहराई से विश्लेषण किया गया है। उस गुरुतम रहस्य को यहाँ पर कथा के द्वारा सरल रूप से प्रस्तुत किया है / 122. भरत 3-17-48 123. निशीथचूणि 124. बृहत्कल्पभाष्य-१, 1231 की वृत्ति 125. 'कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन' पृ. 253-58 126. A. Master-B. SOAS XIII-2, 1950. PP. 41315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org