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________________ 264] [ ज्ञाताधर्मकथा समयंसि पविरलमणसंसि निसंतसि पडिनिसंतसि पत्तेयं पत्तेयं मिहिलं रायहाणि अणुप्पवेसेह / अणुप्पवेसित्ता गम्भघरएसु अणुप्पवेसेह, मिहिलाए रायहाणीए दुवाराई पिधेह, पिधित्ता रोहसज्जे चिट्ठह। ___तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुम्भ से इस प्रकार कहा-तात ! आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता न कीजिए। हे तात ! आप उन जितशत्रु आदि छहों राजारों में से प्रत्येक के पास गुप्त रूप से दूत भेज दीजिए और प्रत्येक को यह कहला दीजिए कि 'मैं विदेहराजवरकन्या तुम्हें देता हूँ।' ऐसा कहकर सन्ध्याकाल के अवसर पर जब बिरले मनुष्य गमनागमन करते हों और विश्राम के लिए अपने-अपने घरों में मनुष्य बैठे हों; उस समय अलग-अलग राजा का मिथिला राजधानी के भीतर प्रवेश कराइए / प्रवेश कराकर उन्हें गर्भगृह के अन्दर ले जाइए। फिर मिथिला राजधानी के द्वार बन्द करा दीजिए और नगरी के रोध में सज्ज होकर ठहरिए–नगररक्षा के लिए तैयार रहिए। १३७–तए णं कुभए राया एवं तं चैव जाव पवेसेइ, रोहसज्जे चिट्ठइ / तत्पश्चात् राजा कुम्भ ने इसी प्रकार किया। यावत् छहों राजाओं को मिथिला के भीतर प्रवेश कराया। वह नगरी के रोध में सज्ज होकर ठहरा / राजाओं को सम्बोधन १३८-तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो कल्लं पाउप्पभायाए जाव' जालंतरेहि कणगमयं मत्थयछिड्ड पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पासंति / 'एस णं मल्ली विदेहरायवरकन्न' त्ति कट्ट मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य मुच्छिया गिद्धा जाव अज्झोववन्ना अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा चिठ्ठति / ___ तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजा कल अर्थात् दूसरे दिन प्रातःकाल (उन्हें जिस मकान में ठहराया था उसकी) जालियों में से स्वर्णमयी, मस्तक पर छिद्र वाली और कमल के ढक्कन वाली मल्ली की प्रतिमा को देखने लगे। 'यही विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है' ऐसा जानकर विदेहराजवरकन्या मल्ली के रूप यौवन और लावण्य में मूच्छित, गृद्ध यावत् अत्यन्त लालायित होकर अनिमेष दृष्टि से बार-बार उसे देखने लगे। १३९---तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना व्हाया जाव पायच्छिता सव्वालंकारविभूसिया बहूहि खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए, जेणेव कणगपडिमा तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तोसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तं पउमं अवणेइ / तए णं गंधे णिद्धावइ से जहानामए अहिमडे इ वा जावअसुभतराए चेव / तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, यावत् कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया। वह समस्त अलंकारों से विभूषित होकर बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से यावत् परिवृत होकर जहाँ जालगृह था और जहाँ स्वर्ण की वह प्रतिमा थी, वहाँ आई / पाकर उस स्वर्णप्रतिमा के मस्तक से 1. प्र अ. 28 2. अष्टम अ. 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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