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________________ दसवां अध्ययन : चन्द्र ] [ 313 तयाणंतरं च णं बिइयाचंदे पडिवयाचंदं पणिहाय अहिययराए बण्णेणं जाव अहियतराए मंडलेणं / एवं खलु एएणं कमेणं परिवुड्ढेमाणे जाव पुण्णिमाचंदे चाउसि चंदं पणिहाय पडिपुण्णे वण्णेणं जाव पडिपुण्णे मंडलेणं / ____ एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे अहिए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं, तयाणंतरं च णं अहिययराए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं / एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्ढेमाणे पडिवड्ढेमाणे जाव पडिपुण्णे बंभचेरवासेणं, एवं खलु जीवा वड्ढंति वा हायंति वा / जैसे शुक्लपक्ष की प्रतिपक्ष का चन्द्र अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिक होता है / तदनन्तर द्वितीया का चन्द्र प्रतिपक्ष के चन्द्र को अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिकतर होता है और इसी क्रम से वृद्धिंगत होता हुआ पूर्णिमा का चन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा परिपूर्ण वर्ण यावत् परिपूर्ण मंडल वाला होता है / इसी प्रकार हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी यावत् प्राचार्य-उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर क्षमा से अधिक वृद्धि प्राप्त होता है, यावत् ब्रह्मचर्य से अधिक होता है, तत्पश्चात् वह क्षमा से यावत् ब्रह्मचर्य से और अधिक-अधिक होता जाता है। निश्चय ही इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते यावत् वह क्षमा आदि एवं ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण हो जाता है / इस प्रकार जीव वृद्धि को और हानि को प्राप्त होते हैं / तात्पर्य यह है कि सद्गुरु की उपासना से, निरन्तर प्रमादहीन रहने से तथा चारित्रावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से क्षमा आदि गुणों को वृद्धि होती है और क्रमशः वृद्धि होते-होते अन्त में वे गुण पूर्णता को प्राप्त होते हैं / विवेचन-प्राध्यात्मिक गुणों के विकास में आत्मा स्वयं उपादानकारण है, किन्तु अकेले उपादानकारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। कार्य की उत्पत्ति के लिए उपादानकारण के साथ निमित्तकारणों की भी अनिवार्य आवश्यकता होती है। निमित्तकारण अन्तरंग, बहिरंग आदि अनेक प्रकार के होते हैं / गुणों के विकास के लिए सद्गुरु का समागम बहिरंग निमित्तकारण है तो चारित्रावरण कर्म का क्षयोपशम एवं अप्रमादवृत्ति अन्तरंग निमित्तकारण है। _ ७–एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स जायज्झयणस्य अयमझें पण्णत्ते त्ति बेमि / इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दसवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है / मैंने जैसा सुना, वैसा ही मैं कहता हूँ / // दसवाँ अध्ययन समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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