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________________ 312] [ ज्ञाताधर्मकथा नहीं होती / तथापि गौतम स्वामी ने वृद्धि-हानि के कारणों के संबंध में प्रश्न किया है। अतएव इस प्रश्न का आशय गुणों के विकास और ह्रास से है / जीव के गुणों का विकास ही जीव की वृद्धि और गुणों का ह्रास ही जीव की हानि है / भगवान् का उत्तरहीनता का समाधान ५–गोयमा ! से जहाणामए बहुलपक्खस्स पडिवयाचंदे पुण्णिमाचंदं पणिहाय होणे वण्णेणं होणे सोम्मयाए, होणे निद्धयाए, होणे कंतीए, एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मंडलेणं, तयाणंतरं च णं बीयाचंदे पाडिवयं चंदं पणिहाय होणतराए वष्णेणं जाव मंडलेणं, तयाणंतरं च णं तइयाचंदे बिइयाचंदं पणिहाय होणतराए वण्णेणं जाव मंडलेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे परिहायमाणे जाव अमावस्साचंदे चाउद्दसिचंदं पणिहाय नठे बण्णेणं जाव नठे मंडलेणं / एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए समाणे होणे खंतीएएवं मुत्तीए गुत्तीए अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचणयाए बंभचेरवासेणं, तयाणंतरं च णं हीणे होणतराए खंतीए जाव होणतराए बंभचेरवासेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहीयमाणे परिहीयमाणे णडे खंतीए जाव गट्ठे बंभचेरवासेणं / भगवान् गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हैं-'हे गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र, पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण (शुक्लता) से हीन होता है, सौम्यता से हीन होता है, स्निग्धता (अरूक्षता) से हीन होता है, कान्ति (मनोहरता) से हीन होता है, इसी प्रकार दीप्ति (चमक) से, युक्ति (अाकाश के साथ संयोग) से, छाया (प्रतिबिम्ब या शोभा) से, प्रभा (उदयकाल में कान्ति की स्फुरणा) से, प्रोजस् (दाहशमन आदि करने के सामर्थ्य) से, लेश्या (किरणरूप लेश्या) से और मण्डल (गोलाई) से हीन होता है / इसी प्रकार कृष्णपक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा, प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है यावत् मण्डल से भी हीन होता है / तत्पश्चात् तृतीया का चन्द्र द्वितीया के चन्द्र की अपेक्षा भी वर्ण से हीन यावत् मंडल से हीन होता है / इस प्रकार आगे-मागे इसी क्रम से होन-हीन होता हुआ यावत् अमावस्या का चन्द्र, चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण आदि से सर्वथा नष्ट होता है, यावत् मण्डल से नष्ट होता है, अर्थात् उसमें वर्ण आदि का अभाव हो जाता है। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी प्रवजित होकर क्षान्ति-क्षमा से हीन होता है, इसी प्रकार मुक्ति (निर्लोभता) से, आर्जव से, मार्दव से, लाधव से, सत्य से, तप से, त्याग से, आकिंचन्य से और ब्रह्मचर्य से, अर्थात् दस मुनिधर्मों से हीन होता है, वह उसके पश्चात् क्षान्ति से हीन और अधिक हीन होता जाता है, यावत् ब्रह्मचर्य से भी हीन अतिहीन होता जाता है / इस प्रकार इसी क्रम से हीन-हीनतर होते हुए उसके क्षमा आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, यावत् उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है / बद्धि का समाधान ६-से जहा वा सुक्कपक्खस्स पाडिवयाचंदे अमावासाए चंदं पणिहाय अहिए वणेणं जाव अहिए मंडलेणं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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