________________ ग्यारहवाँ अध्ययन : दानद्रव सार:संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन अपने आप में इतना संक्षिप्त है कि उसका संक्षेप भाव पृथक् लिखने की आवश्यकता ही नहीं है। रही सार की बात, सो इसका सार है--सहिष्णुता / सन्त जनों को मुक्तिपथ में अग्रसर होने और सफलता प्राप्त करने लिए सहनशील होना चाहिए। प्रस्तुत अध्ययन में विशेष रूप से दुर्वचनों को सहन करने की प्रेरणा की गई है और निरूपण किया है कि जो साधु दुर्वचन सहन करता है, वही मुक्तिमार्ग का या भगवान् को आज्ञा का आराधक हो सकता है। दुर्वचन-सहन को इतना जो महत्त्व दिया गया है, वह निर्हेतुक नहीं है। कोई निन्दा करे, विद्यमान या अविद्यमान दोषों को 'दुष्ट भाव से प्रकट करे, जाति-कुल आदि को हीन बतला कर अपमानित करे अथवा अन्य प्रकार से कटुक, अयोग्य या असभ्य वचनों का प्रयोग करे तो साधु का कर्तव्य यह है कि ऐसे वचनों को सुन कर अपने चित्त में तनिक भी क्षोभ उत्पन्न न होने दे, दुर्वचन कहने वाले के प्रति लेशमात्र भी द्वेष न हो, प्रत्युत करुणाभाव उत्पन्न हो / तात्पर्य यह कि दुर्वचन सुन कर भी जिसका चित्त कलुषित नहीं होता वही वास्तव में सहनशील कहलाता है और वही आराधक होता है। इस प्रकार पाराधक बनने के लिए क्षमा, सहिष्णुता, विवेक, उदारता आदि अनेक गुणों की आवश्यकता होती है। इसलिए दुर्वचन-सहन को इतना महत्त्व दिया गया है / इससे विपरीत जो दुर्वचनों को अन्तःकरण से सहन नहीं करता वह विराधक कहलाता है / देशविराधक, सर्वविराधक, देशाराधक और सर्वाधिक, ये चार विकल्प करके इस तथ्य को अधिक स्पष्ट कर दिया गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,