________________ द्वारा निर्धारित पद्धति का अनुसरण करते हए तैयार किया गया है। इसमें स्थान-स्थान पर 'जाव' शब्द का प्रयोग करके इसी ग्रन्थ में अन्यत्र पाए पाठों को तथा अन्य भागमों में प्रयुक्त पाठों को संक्षिप्त करने का प्रयास किया गया है। फिर भी ग्रन्थ अपने आप में बहदाकार है। अतएव ग्रन्थ अत्यधिक स्थूलकाय न बन जाए, यह बात ध्यान में रख कर 'जाव' शब्द से ग्राह्य आवश्यक और प्रत्युपयोगी पाठों को बकेट में दे दिया गया है, किन्तु जिस 'जाव' शब्द से ग्राह्य पाठ वारंवार पाते ही रहते हैं, जैसे 'मित्त-णाई', अन्नं पाणं, प्रादि वहाँ अति परिचित होने के कारण यों ही रहने दिया गया / कहीं-कहीं उन पाडों के स्थान टिप्पणों में उल्लिखित कर दिए हैं। __कथात्मक होने से प्रस्तुत ग्रन्थ के प्राशय को समझ लेना कठिन नहीं है। अतएव प्रत्येक सूत्र-कंडिका का विवेचन करके ग्रन्थ को स्थूलकाय बनाने से बचा गया है, परन्तु जहाँ प्रावश्यक प्रतीत हुअा वहाँ विवेचन किया गया है। __ प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ से पूर्व उसका वास्तविक रहस्य पाठक को हृदयंगम कराने के लक्ष्य से सार संक्षेप में दिया गया है। अावश्यक टिप्पण और पाठान्तर भी दिए गए हैं। अनेक स्थलों में मूलपाठ के 'जाव' शब्द का 'यावत्' रूप हिन्दी-अनुवाद में भी प्रयुक्त किया गया है। यद्यपि प्रचलित भाषा में ऐसा प्रयोग नहीं होता किन्तु प्राकृत नहीं जानने वाले और केवल हिन्दी-अनुवाद पढ़ने वाले पाठकों को भी प्रागमिक भाषापद्धति का किंचित् आभास हो सकेगा, इस दृष्टिकोण से अनुवाद में 'यावत्' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'यावत' शब्द का अर्थ है—पर्यन्त या तक / जिस शब्द या वाक्य से आगे जाव (थावत) शब्द का प्रयोग हुया है, वहां से प्रारम्भ करके जिस शब्द के पहले वह हो, उसके बीच का पाठ यावत् शब्द से समझा जाता है / इस प्रकार पुनरुक्ति से बचने के लिए 'जाव' शब्द का प्रयोग किया जाता है / __अन्त में तीन परिशिष्ट दिए गए हैं। प्रथम परिशिष्ट में उपनय-गाथाएँ दी गई हैं और उनका हिन्दी भाषा में अर्थ भी दे दिया गया है / ये गाथाएँ मूल आगम का भाग नहीं हैं, अतएव इन्हें मूल से पृथक रक्खा गया है। फिर भी अध्ययन का मर्म प्रकाशित करने वाली हैं, अतएव पठनीय हैं। दूसरे परिशिष्ट में प्रस्तुत प्रागम में युक्त व्यक्तिविशेषों की प्रकारादि क्रम से सूची दी गई है और तीसरे मैं स्थल-विशेषों की सूची है जो अनुसंधानप्रेमियों के लिए विशेष उपयोगी होगी। मूलपाठ के निर्धारण में तथा 'जाव' शब्द की पूर्ति में मुनि श्री नथमलजी म. द्वारा सम्पादित अंगसूत्ताणि' का अनेकानेक स्थलों पर उपयोग किया गया है, एतदर्थ उनके श्राभारी हैं। अर्थ करने में श्री अभयदेवसूरि की टीका का अनुगमन किया गया है / इनके अतिरिक्त अनेक प्रागमों और ग्रन्थों से सहायता ली गई है, उन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना कर्तव्य है। प्राशा है प्रस्तुत संस्करण जिज्ञासु स्वाध्यायप्रेमियों, आगम-सेवियों तथा छात्रों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। चम्पानगर ---शोभाचन्द्र भारिल्ल ब्यावर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org