________________ 118] [ ज्ञाताधर्मकथा जाव' आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसेमाणे जेणेव देवदिन्ने दारए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं सव्वालंकारविभूसियं पासइ / पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने पंथयं दासचेड पमत्तं पासह। पासित्ता दिसालोयं करेह / करेत्ता देवदितं दारयं मेण्हइ / गेण्हित्ता कक्खंसि अल्लियावेइ / अल्लियावित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ / पिहेत्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं रायगिहस्स नगरस्स अवदारेणं निग्गच्छइ / निग्गच्छित्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे, जेणेव भमाकूयए तेणेव उवागच्छई। उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारयं जीवियाओ ववरोवेइ / ववरोवित्ता आभरणालंकारं गेण्हइ / गेण्हित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरयं निप्पाणं निच्चे? जीवियविप्पजढं भग्गकूबए पक्खिवइ। पक्खिवित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुपविसइ / अणुपविसित्ता निच्चले निष्फंदे तुसिणीए दिवसं खिवेमाणे चिट्ठइ / इसी समय विजय चोर राजगृह नगर के बहुत-से द्वारों एवं अपद्वारों आदि को यावत् पूर्वोक्त कथनानुसार देखता हुग्रा, उनकी मार्गणा करता हुआ, गवेषणा करता हुआ, जहाँ देवदत्त बालक था, वहाँ आ पहुँचा / पाकर देवदत्त बालक को सभी आभूषणों से भूषित देखा / देखकर बालक देवदत्त के प्राभरणों और अलंकारों में भूछित (प्रासक्त-विवेकहीन) हो गया, ग्रथित (लोभ से ग्रस्त हो गया, गृद्ध (आकांक्षायुक्त) हो गया और अध्युपपन्न (उनमें अत्यन्त तन्मय) हो गया। उसने दास चेटक पंथक को बेखबर देखा और चारों ओर दिशाओं का अवलोकन किया--इधर-उधर देखा। फिर बालक देवदत्त को उठाया और उठाकर कांख में दबा लिया। प्रोढ़ने के कपड़े से छिपा लिया-हँक लिया। फिर शीघ्र, त्वरित, चपल और उतावल के साथ राजगृह नगर के अपद्वार से बाहर निकल गया / निकल कर जहाँ पूर्ववणित जीर्ण उद्यान और जहाँ टूटा-फूटा कुआ था, वहाँ पहुँचा / वहाँ पहुँच कर देवदत्त बालक को जीवन से रहित कर दिया / उसे निर्जीव करके उसके सब प्राभरण और अलंकार ले लिये / फिर बालक देवदत्त के प्राणहीन और चेष्टाहीन एवं निर्जीव शरीर को उस भग्न कूप में पटक दिया / इसके बाद वह मालुकाकच्छ मे घुस गया और निश्चल अर्थात् गमनागमन रहित, निस्पन्द-हाथों-पैरों को भी न हिलाता हुअा, और मौन रहकर दिन समाप्त होने की राह देखने लगा। विवेचन--बालक निसर्ग से ही सुन्दर और मनोमोहक होते हैं। उनका निर्विकार भोला चेहरा मन को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है / मगर खेद है कि विवेकहीन माता-पिता उनके प्राकृतिक सौन्दर्य से सन्तुष्ट न होकर उन्हें प्राभूषणों से सजाते हैं / इसमें अपनी श्रीमंताई प्रकट करने का अहंकार भी छिपा रहता है / किन्तु वे नहीं जानते कि ऊपर से लादे हुए श्राभूषणों से सहज सौन्दर्य विकृत होता है और साथ ही बालक के प्राण संकट में पड़ते हैं। कैसे-कैसे मनोरथों और कितनी-कितनी मनौतियों के पश्चात् जन्मे हुए बालक को ग्राभूषणों की बदौलत प्राण गँवाने पड़े। आधुनिक युग में तो मनुष्य के प्राण हरण करना सामान्य-सी बात हो गई है। प्राभूषणों के कारण अनेकों को प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। फिर भी आश्चर्य है कि लोगों का, विशेषतः महिलावर्ग का आभूषण-मोह छूट नहीं सका है। प्रस्तुत घटना का शास्त्र में उल्लेख होना बहुत उपदेशप्रद है। 1. द्वि. अ. सूत्र 9. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org