SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम अध्ययन : शैलक सार : संक्षेप ___ द्वारका नगरी में बाईसवें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि का पदार्पण हुआ। वासुदेव कृष्ण अपने बृहत् परिवार के साथ प्रभु की उपासना और धर्मदेशना श्रवण करने पहुँचे / द्वारका के नरनारी भी पीछे न रहे। साक्षात् तीर्थकर भगवान् के मुख-चन्द्र से प्रवाहित होने वाले वचनामृत से कौन भव्य प्राणी वंचित रहना चाहता? द्वारका में थावच्चा नामक एक सम्पन्न गृहस्थ महिला थी / उसका इकलौता पुत्र थावच्चापुत्र के नाम से ही अभिहित होता था / वह भी भगवान की धर्मदेशना श्रवण करने पहुँचा / धर्मदेशना सुनी और वैराग्य के रंग में रंग गया। माता ने बहुत समझाया, आजीजी की, किन्तु थावच्चापुत्र अपने निश्चय पर अटल रहा। अन्त में विवश होकर माता ने दीक्षा-महोत्सव करने का प्रस्ताव किया, जिसे उसने मौनभाव से स्वीकार किया। थावच्चा छत्र, चामर आदि मांगने कृष्ण महाराज के पास गई तो उन्होंने स्वयं अपनी अोर से महोत्सव मनाने को कहा / थावच्चापुत्र के बैराग्य की परीक्षा करने वे स्वयं उसके घर पर गए। सोलह हजार राजाओं के राजा, अर्द्धभरत क्षेत्र के अधिपति महाराज श्रीकृष्ण का सहज रूप से थावच्चा के घर जा पहुँचना उनकी असाधारण महत्ता और निरहंकारिता का द्योतक है। श्रीकृष्ण को थावच्चापुत्र की परीक्षा के पश्चात् जब विश्वास हो गया कि उसका वैराग्य आन्तरिक है, सच्चा * है तो उन्होंने द्वारका नगरी में ग्राम घोषणा करवा दी-'भगवान् अरिष्टनेमि के निकट दीक्षित होने वालों के आश्रित जनों के पालन-पोषण-संरक्षण का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व वासुदेव वहन करेंगे। जो दीक्षित होना चाहे, निश्चिन्त होकर दीक्षा ग्रहण करे। __ घोषणा सुनकर एक हजार पुरुष थावच्चापुत्र के साथ प्रवजित हुए / कालान्तर में थावच्चापुत्र अनगार, भगवान् अरिष्टनेमि की अनुमति लेकर अपने साथी एक सहस्र मुनियों के साथ देशदेशान्तर में पृथक् विचरण करने लगे। विचरण करते-करते थावच्चापुत्र सौगन्धिका नगरी पहुँचे / वहाँ का नगर-सेठ सुदर्शन यद्यपि सांख्यधर्म का अनुयायी और शुक परिव्राजक का शिष्य था, तथापि वह थावच्चापुत्र की धर्मदेशना श्रवण करने गया। थावच्चापुत्र और सुदर्शन श्रेष्ठी के बीच धर्म के मूल आधार को लेकर संवाद हुआ, जिसका विवरण इस अध्ययन में उल्लिखित है। संवाद से सन्तुष्ट होकर सुदर्शन ने निर्ग्रन्थप्रवचन अर्थात् जिनधर्म को अंगीकार कर लिया। शुक परिव्राजक को जब इस घटना का पता चला तो वह सुदर्शन को पुनः अपना अनुयायी बनाने के विचार से सौगन्धिका नगरी में पाया। सुदर्शन डिगा नहीं / दोनों धर्माचार्यों---शुक और थावच्चापुत्र --में धर्मचर्चा का आयोजन हुआ। शुक अपने शिष्यों के साथ थावच्चापुत्र के समीप पहुँचे / दोनों की चर्चा तो हुई किन्तु उसे कोई तात्त्विक चर्चा नहीं कहा जा सकता / शुक ने शब्दों के चक्कर में थावच्चापुत्र को फँसाने का प्रयास किया मगर थावच्चापुत्र ने उसका गूढ अभिप्राय समझकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy