________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म | हे आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण या श्रमणी (प्राचार्य या उपाध्याय के निकट मुडित होकर दीक्षित हुआ है,) पांचों इन्द्रियों का गोपन करता है, जैसे उस कछुए ने अपनी इन्द्रियों को गोपन करके रखा था, वह इसी भव में बहुसंख्यक श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय वन्दनीय नमस्करणीय पूजनीय सत्करणीय और सम्माननीय होता है / वह कल्याण मंगल देवस्वरूप एवं चैत्यस्वरूप तथा उपासनीय बनता है। परलोक में उसे हाथों, कानों और नाक के छेदन के दुःख नहीं भोगने पड़ते / हृदय के उत्पाटन, वृषणों-अंडकोषों के उखाड़ने, फांसी चढ़ने आदि के कष्ट नहीं झेलने पड़ते / वह अनादिअनन्त संसार-कांतार को पार कर जाता है / ___१४-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगक्या महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि। अध्ययन का उपसंहार करते हुए सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने चौथे ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है, जैसे मैंने भगवान् से सुना है, वैसा ही मैं कहता हूँ। // चतुर्थ अध्ययन समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org