________________ तच्च अज्झायण : अंडे जम्बू स्वामी का प्रश्न १-जह णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स णायाधम्मकहाणं अयमठे पन्नत्ते, तइअस्स अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? श्री जम्बू स्वामी अपने गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रश्न करते हैं-भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ फर्माया है तो तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ फर्माया है ? सुधर्मा स्वामी का उत्तर २-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, वन्नओ' / तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभाए नामं उज्जाणे होत्था। सवोउय-पुष्फफलसमिद्धे सुरम्मे नंदणवणे इव सुह-सुरभि-सीयल-च्छायाए समणुबद्धे / / श्री सुधर्मा उत्तर देते हैं. हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उसका वर्णन ग्रोपपातिक सूत्र के अनुसार समझना चाहिए। उस चम्पा नगरी से बाहर उत्तरपूर्व दिशा-ईशान कोण में सुभूमिभाग नामक एक उद्यान था / वह सभी ऋतुओं के फूलों-फूलों से सम्पन्न रहता था और रमणीय था। नन्दन-वन के समान शुभ था या सुखकारक था तथा सुगंधयुक्त और शीतल छाया से व्याप्त था। मयूरी के अंडे 3- तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था, वण्णओ' / तत्थ णं एगा वणमऊरी दो पुछे परियागए पिटुडी पंडुरे निव्वणे निरुवहए भिन्नमुट्ठिप्पमाणे मऊरीअंडए पसवइ / पसवित्ता सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संविठेमाणी विहरइ। उस सुभूमिभाग उद्यान के उत्तर में, एक प्रदेश में, एक मालुकाकच्छ था, अर्थात् मालुका नामक वृक्षों का वनखण्ड था। उसका वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। उस मालुकाकच्छ में एक श्रेष्ठ मयूरी ने पुष्ट, पर्यायागत... अनुक्रम से प्रसवकाल को प्राप्त, चावलों के पिंड के समान श्वेत वर्ण वाले, व्रण अर्थात् छिद्र या घाव से रहित, वायु आदि के उपद्रव से रहित तथा पोली मुट्ठी के बराबर, दो मयूरी के अंडों का प्रसव किया। प्रसव करके वह अपने पांखों की वायु से उनकी रक्षा करती, उनका संगोपन-सारसंभाल करती और संवेष्टन--पोषण करती हुई रहती थी। ४-तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्थवाहदारगा परिवसंति; तंजहा-जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपुत्ते य सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अन्नमन्नमणुरत्तया अन्नमन्नमणु 1. प्रोप. सूत्र 1 2. द्वि. अ. सूत्र 5 3. द्वितीय अध्य. सूत्र 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org