________________ 272 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १६३-तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिठे विमाणपत्थडे साह सहि विमाणेहि, सएहि सएहिं पासायडिसएहि, पत्तेयं पत्तेयं चहिं सामाणियसाहस्सीहि, तिहिं परिसाहिं, सतहिं अणिएहि, सतहिं अणियाहिवईहि, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सोहि, अन्नेहि य बहिं लोगंतिएहिं देवेहि सद्धि संपरिवुडा महयाहयनट्टगीयवाइय जाव [तंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंग-पडुप्पवाइय-] रवेणं भुजमाणा विहरंति / तंजहा सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य / तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य / / उस काल और उस समय में लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक नामक पाँचवें देवलोक-स्वर्ग में, अरिष्ट नामक विमान के प्रस्तट-पाथड़े में, अपने-अपने विमान से, अपने-अपने उत्तम प्रासादों से, प्रत्येक-प्रत्येक चार-चार हजार सामानिक देवों से, तीन-तीन परिषदों से, सात-सात अनीकों से, सातसात अनीकाधिपतियों (सेनापतियों) से, सोलह-सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों से तथा अन्य अनेक लौकान्तिक देवों से युक्त-परिवृत होकर, खूब जोर से बजाये जाते हुए [तन्त्री, तल, ताल, बुटिक, घन, मृदंग आदि वाद्यों] नत्यों गीतों के शब्दों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विचर रहे थे। उन लौकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार हैं--(१) सारस्वत (2) वह्नि (3) आदित्य (4) वरुण (5) गर्दतोय (6) तुषित (7) अव्याबाध (8) आग्नेय (9) रिष्ट' / १६४-तए णं तेसि लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति, तहेव जाव 'अरहंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करेत्तए त्ति तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिस्स अरहओ संबोहणं करेमो।' ति कटु एवं संपेहेंति, संपेहिता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं वेउध्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव' जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुभगस्स रणो भवणे, जेणेव मल्ली अरहा, तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता अंतलिक्खपडिवन्ना सखिखिणियाई जाव [दसद्धवण्णाई] वत्थाई पवरपरिहिया करयल ताहि इट्ठाहि जाव एवं वयासी--- तत्पश्चात् उन लौकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हुए-इत्यादि उसी प्रकार जानना अर्थात् अासन चलित होने पर उन्होंने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर मल्ली अर्हत् के प्रव्रज्या के संकल्प को जाना / फिर विचार किया कि-दीक्षा लेने की इच्छा करने वाले तीर्थकरों को मम्बोधन करना हमारा प्राचार है; अतः हम जाएँ और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें; ऐसा लौकान्तिक देवों ने विचार किया। विचार करके उन्होंने ईशान दिशा में जाकर बैक्रियसमुद्घात ने विक्रिया की--उत्तर वैक्रिय शरीर धारण किया। समुद्घात करके संख्यात योजन उल्लंघन करके, जभक देवों की तरह जहाँ मिथिला राजधानी थी, जहाँ कुम्भ राजा का भवन था और जहाँ मल्ली नामक अर्हत थे, वहाँ आये। प्राकर के-अधर में स्थित रह कर घघरुओं के शब्द सहित यावत 1. लोकान्तिक' देवों के विषय में टीकाकार अभयदेवसूरि ने लिखा है-..'क्वचित दशविधा एते व्याख्यायन्ते, अस्माभिस्तु स्थानाङ्गनुसारेणवमभिहिता: / ' अर्थात् कहीं-कहीं लौकान्तिक देवों के दश भेद कहे हैं, किन्तु हमने स्थानांग सूत्र के अनुसार ही यहाँ भेदों का कथन किया है ।-स्थानाङ्गवत्ति पृ. 160, सिद्धचक्रसाहित्यप्रचारकसमिति-संस्करण / 2. अष्टम अ. 157 3-4. प्र. प्र.१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org