________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 273 [पाँच वर्ण के] श्रेष्ठ वस्त्र धारण करके, दोनों हाथ जोड़कर, इष्ट, [कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अत्यन्त मनोहर] यावत् वाणी से इस प्रकार बोले १६५–'बुज्झाहि भयवं ! लोगनाहा ! पवत्तेहि धम्मतित्यं, जीवाणं हिय-सुह-निस्सेयसकरं भविस्सई' ति कट्ट दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयंति / वइत्ता मल्लि अरहं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। 'हे लोक के नाथ ! हे भगवन् ! बूझो-बोध पाओ। धर्मतीर्थ को प्रवृत्ति करो। वह धर्मतीर्थ जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और निश्रेयसकारी (मोक्षकारी) होगा।' इस प्रकार कह कर दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहा / कहकर अरहन्त मल्ली को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में लौट गए / विवेचन-तीर्थंकर अनेक पूर्वभवों के सत्संस्कारों के साथ जन्म लेते हैं / जन्म से ही, यहाँ तक कि गर्भावस्था से ही उनमें अनेक विशिष्टताएँ होती हैं। वे स्वयंबुद्ध ही होते हैं / किसी अन्य से बोध प्राप्त करने की आवश्यकता उन्हें नहीं होती। फिर लौकान्तिक देवों के प्रागमन की और प्रतिबोध देने की आवश्यकता क्यों होती है ? इस प्रश्न का उत्तर प्रकारान्तर से मूल पाठ में ही पा गया है / तीर्थकर को प्रतिबोध की आवश्यकता न होने पर भी लौकान्तिक देव अपना परम्परागत आचार समझ कर पाते हैं। उनका प्रतिबोध करना वस्तुतः तीर्थंकर भगवान् के वैराग्य की सराहना करना मात्र है। यही कारण है तीर्थंकर का दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प पहले होता है, लौकान्तिक देव बाद में आते हैं / तीर्थकर के संकल्प के कारण देवों का प्रासन चलायमान होना अब आश्चर्यजनक घटना नहीं रहा है। परामनोविज्ञान के अनुसार, ग्राज वैज्ञानिक विकास के युग में यह घटना सुसम्भव है / इससे तीर्थंकर के अत्यन्त सुदृढ एवं तीव्रतर संकल्प का अनुमान किया जा सकता है / १६६-तए णं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहि देवेहि संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल' - 'इच्छामि णं अम्मयाओ! तुहिं अब्भणुण्णाए समाणे मुडे भवित्ता जाव (अगाराओ अणगारियं) पच्वइत्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधित हुए मल्ली अरहन्त माता-पिता के पास आये। आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहा- "हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा प्राप्त करके मुडित होकर गृहत्याग करके अनगार-प्रव्रज्या ग्रहण करने की मेरी इच्छा है।' तब माता-पिता ने कहा---'हे देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबन्ध-विलम्ब मत करो।' १६७--तए णं कुभए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव अट्टसहस्सं सोवणियाणं जाव अटुसहस्साणं भोमेज्जाणं कलसाणं ति। अण्णं च महत्वं जाव (महग्धं महरिहं विउलं) तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह / ' जाव उवट्ठवेति / 1. प्र. अ.१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org