________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 271 १६०---तए णं से कुभए राया मिहिलाए रायहाणीए तत्थ तत्थ तहि तहि देसे देसे बहूओ महाणससालाओ करेइ / तत्थ णं बहवे मणुया दिण्णभइ-भत्त-वेयणा विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडेंति / उवक्खडित्ता जे जहा आगच्छंति तंजहा-पंथिया वा, पहिया बा, करोडिया वा, कप्यडिया वा, पासंडत्था वा, गिहत्था वा तस्स य तहा आसत्थस्स वीसत्थस्स सुहासणवरगयस्स. तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरति / तत्पश्चात कुम्भ राजा ने भी मिथिला राजधानी में तत्र तत्र अर्थात विभिन्न मुहल्लों या उपनगरों में, तहिं तहिं अर्थात् महामार्गों में तथा अन्य अनेक स्थानों में, देशे देशे अर्थात् त्रिक, चतुष्क आदि स्थानों-स्थानों में बहुत-सी भोजनशालाएँ बनवाईं। उन भोजनशालाओं में बहुत-से मनुष्य, जिन्हें भृति--धन, भक्त-भोजन और वेतन-मूल्य दिया जाता था, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाते थे। बना करके जो लोग जैसे जैसे आते जाते थे जैसे कि-पांथिक (निरन्तर रास्ता चलने वाले ), पथिक (मुसाफिर), करोटिक (कपाल-खोपड़ी लेकर भीख मांगने वाले) कार्पटिक (कंथा, कोपोन या कषाय वस्त्र धारण करने वाले) पाखण्डी (साधु, बाबा, संन्यासी) अथवा गृहस्थ, उन्हें आश्वासन देकर, विश्राम देकर और सुखद आसान पर बिठला कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य दिया जाता था, परोसा जाता था। वे मनुष्य वहाँ भोजन आदि देते रहते थे। १६१.-तए णं मिहिलाए सिंघाडग जाव' बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ---'एवं खलु देवाणु प्पिया ! कुभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं बहूणं समणाय य जाय परिवेसिज्जइ।' वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिज्जए बहुविहीयं / सुर-असुर-देव-दाणव-नरिदमहियाण निक्खमणे // तत्पश्चात् मिथिला राजधानी में शृगाटक, त्रिक, चौक आदि मार्गों में बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे—'हे देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा के भवन में सर्वकामगुणित अर्थात् सब प्रकार के सुन्दर रूप, रस, गंध और स्पर्श वाला-मनोवाञ्छित रस-पर्याय वाला तथा इच्छानुसार दिया जाने वाला विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम अाहार बहुत-से श्रमणों आदि को यावत् परोसा जाता है / तात्पर्य यह है कि कुम्भ राजा द्वारा जगह-जगह भोजनशालाएँ खुलवा देने और भोजनदान देने की गली-गली में सर्वत्र चर्चा होने लगी। वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों तथा नरेन्द्रों अर्थात् चक्रवर्ती आदि राजाओं द्वारा पूजित तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर वरवरिका की घोषणा कराई जाती है, और याचकों को यथेष्ट दान दिया जाता है / अर्थात् और तुम्हें क्या चाहिए, तुम्हें क्या चाहिए, इस प्रकार पूछ-पूछ कर याचक की इच्छा के अनुसार दान दिया जाता है / १६२-तए णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिनि कोडिसया अट्ठासीइं च होंति कोडीओ असिई च सयसहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलइत्ता निक्खमामि ति मणं पहारेइ / उस समय अरिहंत मल्ली ने तीन सौ अठासी करोड अस्सी लाख जितनी अर्थसम्पदा दान देकर 'मैं दीक्षा ग्रहण करू" ऐसा मन में निश्चय किया। 1. प्रथम प्र. 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org