________________ 270 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १५७--तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं जाव [एवं वुत्ता समाणा] पडिसुणेत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसोभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता जाव [वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरंति जाव] उत्तरवेउम्वियाई रुवाइं विउध्वंति, विउवित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव' वीइवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, जेणेव मिहिला रायहाणी, जेणेव कुभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कुभगस्स रण्णो भवणंसि तिन्नि कोडिसया जाव साहरंति। साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणंति। ___ तत्पश्चात् वे जृभक देव, वैश्रमण देव की आज्ञा सुनकर उत्तरपूर्व दिशा में गये / जाकर उत्तरवैक्रिय [वक्रिय समुदघात किया, समुदघात करके संख्यात योजन का दंड निकाला, फिर उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की। विकुर्वणा करके देव सम्बन्धी उत्कृष्ट गति से जाते हुए जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वोप था, भरतक्षेत्र था, जहाँ मिथिला राजधानी थी और जहाँ कुम्भ राजा का भवन था, वहाँ पहुंचे / पहुंच कर कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ करोड आदि पूर्वोक्त द्रव्य सम्पत्ति पहुंचा दी। पहुंचा कर वे ज़भक देव, वैश्रमण देव के पास आये और उसकी आज्ञा वापिस लौटाई / विवेचन—पृथ्वी का एक नाम 'वसुन्धरा' भी है / वसुन्धरा का शब्दार्थ है - वसु अर्थात् धन को धारण करने वाली। 'पदे पदे निधानानि' कहावत भी प्रसिद्ध है, जिसका आशय भी यही है कि इस पृथ्वी में जगह-जगह निधान-खजाने भरे पड़े हैं। जृम्भक देव अवधिज्ञानी होते हैं / उन्हें ज्ञान होता है कि कहाँ-कहाँ कितना द्रव्य गड़ा पड़ा है / जिन निधानों का कोई स्वामी नहीं बचा रहता, जिनका नामगोत्र भी निश्शेष हो जाता है, जिनके वंश में कोई उत्तराधिकारी नहीं रहता, जो निधान अस्वामिक हैं, उनमें से जम्भक देव इतना द्रव्य निकाल कर तीर्थंकर के वर्षीदान के लिए उनके घर में पहुंचाते हैं। १५८-तए णं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविदे देवराया तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणइ / तत्पश्चात् वह वैश्रमण देव जहाँ शक्र देवेन्द्र देवराज था, वहाँ पाया / प्राकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् उसने इन्द्र की आज्ञा वापिस सौंपी। १५९-तए णं मल्लो अरहा कल्लाल्लि जाव मागहओ पायरासो त्ति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडि अट्ट य अणूणाई सयसहस्साहं इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलयइ। तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने प्रतिदिन प्रातःकाल से प्रारम्भ करके मगध देश के प्रातराश (प्रातःकालीन भोजन) के समय तक अर्थात् दोपहर पर्यन्त बहुत-से सनाथों, अनाथों पांथिकों-- निरन्तर मार्ग पर चलने वाले पथिकों, पथिकों-राहगीरों अथवा किसी के द्वारा किसी प्रयोजन से भेजे गये पुरुषों, करोटिक-कपाल हाथ में लेकर भिक्षा मांगने वालों, कार्पटिक-कंथा कोपीन या गेरुये वस्त्र धारण करने वालों अथवा कपट से भिक्षा मांगने वालों अथवा एक प्रकार के भिक्षुक विशेषों को पूरी एक करोड़ और आठ लाख स्वर्णमोहरें दान में देना प्रारम्भ किया। 1. प्रथम अ. 70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org