________________ 318 ] [ ज्ञाताधर्मकथा श्रमणियों के, बहुत-से श्रावकों के, बहुत-सी श्राविकाओं के, बहुत-से अन्यतीथिकों के और बहुत-से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है, उस पुरुष को मैंने सर्वाराधक कहा है। इस प्रकार हे गौतम ! जीव आराधक और विराधक होते हैं / १४–एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं एक्कारसमस अयमठे पण्णत्ते, त्ति बेमि। श्री सुधर्मा स्वामी अपने उत्तर का उपसंहार करते हुए कहते हैं- इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने ग्यारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है / जैसा मैंने सुना, वैसा ही कहता हूँ। विवेचन-इस अध्ययन में कथित दावद्रव वृक्षों के समान साधु हैं / द्वीप की वायु के समान स्वपक्षी साधु आदि के वचन, समुद्री वायु के समान अन्यत्तीथिकों के वचन और पुष्प-फल आदि के समान मोक्षमार्ग की आराधना समझना चाहिए। ऐ द्वीप की वायु के संसर्ग से वृक्षों को समृद्धि बताई, उसी प्रकार साधर्मी के दुर्वचन सहने से मोक्षमार्ग की आराधना और दुर्वचन न सहने से विराधना समझनी चाहिए। अन्यतीथिकों के दुर्वचन न सहन करने से मोक्षमार्ग की अल्प-विराधना होती है। जैसे समुद्री वायु से पुष्प आदि की थोड़ी समृद्धि और बहुत असमृद्धि बताई, उसी प्रकार परतीथिकों के दुर्वचन सहन करने और स्वपक्ष के सहन न करने से थोड़ी आराधना और वहुत विराधना होती है / दोनों के दुर्वचन सहन न करके क्रोध आदि करने से सर्वथा विराधना और सहन करने से सर्वथा अाराधना होती है। अतएव साधु को सभी दुर्वचन क्षमाभाव से सहन करने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org