________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ] [113 १३–एवं संपेहेइ, संपेहिता कल्लं जाव' जलते जेणामेव धण्णे सत्यवाहे तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता एवं वयासी–एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तुन्भेहि सद्धि बहूई वासाई जाव देन्ति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पणिए / तं णं अहं अहन्ना अपुन्ना अकयलक्खणा, एत्तो एगमवि न पत्ता / तं इच्छामि णं देवाणुप्पिा ! तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी विउलं असणं 4 जाब अणुवढेमि, उवाइयं करेत्तए। भद्रा ने इस प्रकार विचार किया। विचार करके दूसरे दिन यावत् सूर्योदय होने पर जहाँ धन्य सार्थवाह थे, वहीं आई / आकर इस प्रकार बोली देवानुप्रिय ! मैंने आपके साथ बहुत वर्षों तक कामभोग भोगे हैं, किन्तु एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया / अन्य स्त्रियाँ बार-बार अति मधुर वचन वाले उल्लाप देती हैं- अपने बच्चों को लोरियाँ गाती हैं, किन्तु मैं अधन्य, पुण्य-होन और लक्षणहीन हूँ, जिससे पूर्वोक्त विशेषणों में से एक भी विशेषण न पा सकी। तो हे देवानुप्रिय ! मैं चाहती हूँ कि आपकी आज्ञा पाकर विपुल अशन प्रादि तैयार कराकर नाग आदि की पूजा करूं यावत् उनकी अक्षय निधि की वृद्धि करू, ऐसी मनौती मनाऊँ / (पूर्व सूत्र के अनुसार यहाँ भी सब कह लेना चाहिए)। पति की अनुमति १४-तए णं धण्णे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासी----'ममं पि य णं खलु देवाणुप्पिए ! एस चेव मणोरहे- कहं णं तुमं दारगं वा दारियं वा पयाएज्जासि ?' भद्दाए सत्यवाहीए एयम? अणुजाणाइ। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा---'हे देवानुप्रिये ! निश्चय ही मेरा भी यही मनोरथ है कि किसी प्रकार तुम पुत्र या पुत्री का प्रसव करो जन्म दो।' इस प्रकार कह कर भद्रा सार्थवाही को उस अर्थ को अर्थात् नाग, भूत, यक्ष आदि की पूजा करने की अनुमति दे दी। देवों की पूजा १५-तए णं सा भद्दा सत्यवाही धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नाया समाणी हद्वतुट्ठ जाव' हयहियया विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ / उवक्खडावेत्ता सुबहुं पुप्फ-गंध-वत्थ-मल्लालंकारं गेण्हइ। गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता रायगिहं नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छइ / निग्गच्छित्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुष्फ जाव मल्लालंकारं ठवेइ / ठवित्ता पुक्खरिणि ओगाहेइ / ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, जलकोडं करेइ, करिता व्हाया कयबलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ उप्पलाइं जाव (पउमाइं कुमुयाई लिणाई सुभगाई सोगंधियाई पोंडरीयाई महापोंडरीयाई सयवत्ताई) सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ / गिण्हित्ता पुक्खरिणीओ पच्चोरहइ / पच्चोरुहित्ता तं सुबहुं पुष्फगंधमल्लं गेण्हइ। गेण्हित्ता जेणामेव नागघरए य जाव वेसमगधरए / तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तत्थ णं नागपडिमाण य जाव 1. प्र. अ. सूत्र 28. 2. द्वि. अ. सूत्र 11. 3. प्र. अ. सूत्र 18. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org