________________ 84] [ ज्ञाताधर्मकथा मंडल निर्माण 178 तए णं तुम मेहा ! अन्नया पढमपाउसंसि महादिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए अदूरसामंते बहूहिं हत्थीहि जाव' कलभियाहि य सत्तहि य हत्थिसएहि संपरिवडे एगं महं जोयणपरिमंडलं महइमहालयं मंडलं घाएसि / जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कळं वा कंटए वा लया वा वल्ली वा खाणु वा रुक्खे वा खुवे वा, तं सव्वं तिक्खुत्तो आहुणिय आहुणिय पाएण उट्ठवेसि, हत्येणं गेहसि, एगते पाडेसि / तए णं तुम मेहा ! तस्सेव मंडलस्स अदूरसामंते गंगाए महानईए दाहिणिल्ले कूले विझगिरिपायमूले गिरिसु य जाव' विहरसि। तत्पश्चात् हे मेघ ! तुमने एक बार कभी प्रथम वर्षाकाल में खूब वर्षा होने पर गंगा महानदी के समीप बहुत-से हाथियों यावत् हथिनियों से अर्थात् सात सौ हाथियों से परिवत होकर एक योजन परिमित बड़े घेरे वाला विशाल मंडल बनाया। उस मंडल में जो कुछ भी घास, पत्ते, काप्ठ, कांटे, लता, बेलें, ठूठ, वृक्ष या पौधे प्रादि थे, उन सबको तीन बार हिला कर पैर से उखाड़ा, सूड से पकड़ा और एक ओर ले जाकर डाल दिया / हे मेघ ! तत्पश्चात् तुम उसी मंडल के समीप गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे, विन्ध्याचल के पादमूल में, पर्वत आदि पूर्वोक्त स्थानों में विचरण करने लगे। १७९-तए णं मेहा ! अन्नया कयाइ मज्झिमए वरिसारत्तंसि महावुटिकायंसि संनिवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि / उवागच्छित्ता दोच्चं पि मंडलं घाएसि / एवं चरिमे वासारत्तंसि महावट्रिकार्यसि सन्निवइयमाणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि; उवाच्छित्ता तच्चं पि मंडलघायं करेसि / जं तत्थ तणं वा जाव' सुहंसुहेणं विहरसि / तत्पश्चात हे मेघ ! किसी अन्य समय मध्य वर्षा ऋतु में खूब वर्षा होने पर तुम उस स्थान पर गए जहाँ मंडल था / वहाँ जाकर दूसरी बार उस मंडल को ठीक तरह साफ किया। इसी प्रकार अन्तिम वर्षा-रात्रि में भी घोर वष्टि होने पर जहाँ मंडल था, वहाँ गए। जाकर तीसरी बार उस मंडल को साफ किया / वहाँ जो भी घास, पत्ते, काष्ठ, कांटे, लता, बेलें ठूठ, वृक्ष या पौधे उगे थे, उन सबको उखाड़क वचरण करने लगे। १८०--अह मेहा ! तुम गइंदभावम्मि वट्टमाणो कमेणं नलिणिवविवहणगरे हेमंते कुद लोद्ध-उद्धत-तुसारपउरम्मि अइक्कते, अहिणवे गिम्हसमयंसि पत्ते, वियट्टमाणो वणेसु वणकरेणविविह-दिण्ण-कयपसवघाओ तुम उउय-कुसुम कयचामर-कन्नपूर-परिमंडियाभिरामो मयवस-विगसंतकड-तडकिलिन्न-गंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधो करेणुपरिवारिओ उउ-समत्त-जणियसोभो काले दिणयरकरपयंडे परिसोसिय-तरुवर-सिहर-भीमतर-दंसणिज्जे भिगाररवंतभेरवरवे गाणाविहपत्तकट्ठ-तण-कयवरुद्धत-पइमारुयाइद्धनयल-दुमगणे वाउलियादारुणयरे तण्हावस-दोससिय-भमंतविविह-सावय-समाउले भीमदरिसणिज्जे वट्टते दारुणम्मि गिम्हे मारुयवसपसर-पसरियवियंभिएणं अन्भहिय-भीम-भेरव-रव-प्पगारेणं महुधारा-पडिय-सित्त-उद्घायमाण-धगधगंत-सदुद्धएणं दित्ततरसफु१. प्र. अ. 1652. प्र. अ. 166 3. प्र. अ. 178 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org