SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 142] [ज्ञाताधर्मकथा को प्राप्त हुआ। अतएव वह विचार करने लगा कि मेरे इस अंडे में से क्रीडा करने का मयूरी-बालक उत्पन्न होगा अथवा नहीं होगा ? इस प्रकार विचार करके वह बार-बार उस अंडे को उद्वर्तन करने लगा अर्थात् नीचे का भाग ऊपर करके फिराने लगा, घुमाने लगा, पासारण करने लगा अर्थात एक जगह से दूसरी जगह रखने लगा, संसारण करने लगा अर्थात बार-बार स्थानान्तरित करने लगा. चलाने लगा. दिलाने लगा, घट्टन -हाथ से स्पर्श करने लगा, क्षोभण--भूमि को खोदकर उसमें रखने लगा और बार-बार उसे कान के पास ले जाकर बजाने लगा। तदनन्तर वह मयूरी-अंडा बार-बार उद्वर्तन करने से यावत् [परिवर्तन करने से, आसारण-संसारण करने से, चलाने, हिलाने, स्पर्श करने से, क्षोभण करने से] बजाने से पोचा हो गया-निर्जीव हो गया। 19 -तए णं से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए अन्नया कयाई जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तं मऊरीअंडयं पोच्चडमेव पासइ। पासित्ता 'अहो णं मम एस कोलावणए ण जाए' ति कटु ओहयमणसंकरपे करतलपल्हत्यमुहे अट्टज्झाणोवगए। सागरदत्त का पुत्र सार्थवाहदारक किसी समय जहाँ मयूरी का अंडा था वहाँ पाया। पाकर उस मयूरी-अंडे को उसने पोचा देखा / देखकर 'प्रोह ! यह मयूरी का वच्चा मेरी क्रीडा करने के योग्य न हुआ ऐसा विचार करके खेदखिन्नचित्त होकर चिन्ता करने लगा। उसके सब मनोरथ विफल हो गए। शंकाशीलता का कुफल २०-एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए पम्वइए समाणे पंचमहन्वएसु, छज्जीवनिकाएसु, निग्गंथे पावयणे संकिए जाव (कंखिए वितिगिछसमावण्णे)कलुससमावन्ने से णं इह भवे चेव बहूर्ण समणाणं समणीणं बहूणं सावगाणं साविगाणं होलणिज्जे खिसणिज्जे गरिहणिज्जे, परिभवणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य जाव (बहूणि मुंडणाणि य बहूणि तज्जणाणि य बहूणि तालणाणि य बहूणि अंदुबंधणाणि य बहूणि घोलणाणि य बहणि माइमरणाणि य बहूणि पिइमरणाणि य बहूणि भाइमरणाणि य बहूणि भगिणीमरणाणि य बहूणि भज्जामरणाणि य बहूणि पुत्तमरणाणि य बहूणि धूयमरणाणि य बहूणि सुण्हामरणाणि य, बहुणि दारिदाणं बहूणं दोहग्गाणं बहूणं अप्पियसंवासाणं बहूणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्खदोमणस्साणं आभागी भविस्सति, अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकतारं भुज्जो भुज्जो) अणुपरियट्टिस्सइ / अायुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार जो साधु या साध्वी प्राचार्य या उपाध्याय के समीप प्रव्रज्या ग्रहण करके पाँच महाव्रतों के विषय में अथवा षट् जीवनिकाय के विषय में अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में शंका करता है [कांक्षा-परदर्शन की या लौकिक फल की अभिलाषा करता है, या क्रिया के फल में सन्देह करता है या कलुषता को प्राप्त होता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा हीलना करने योग्य-गच्छ से पृथक करने योग्य, मन से निन्दा करने योग्य, लोक-निन्दनीय, समक्ष में ही गह: (निन्दा) करने योग्य और परिभव (अनादर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy