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________________ जैनदर्शन के अनुसार स्वप्न का मूल कारण दर्शनमोहनीय कर्म का उदय है। दर्शनमोह के कारण मन में राग और द्वेष का स्पन्दन होता है, चित्त चंचल बनता है। शब्द आदि विषयों से संबंधित स्थूल और सूक्ष्म विचार-तरंगों से मन प्रकंपित होता है / संकल्प-विकल्प या विषयोन्मुखी वृत्तियाँ इतनी प्रबल हो जाती हैं कि नींद आने पर भी शांति नहीं होती / इन्द्रियाँ सो जाती हैं, किन्तु मन को वृत्तियाँ भटकती रहती हैं। वे अनेकानेक विषयों का चिन्तन करती रहती हैं / वृत्तियों को इस प्रकार की चंचलता ही स्वप्न है। सिग्मण्ड फ्रायड ने स्वप्न का अर्थ दमित वासनानों की अभिव्यक्ति कहा है। उन्होंने स्वप्न के संक्षेपण, विस्तारीकरण, भावान्तरकरण और नाटकीकरण, ये चार प्रकार किये हैं। (1) बहत विस्तार की घटना को स्वप्न में संक्षित रूप में देखना (2) स्वप्न में घटना को विस्तार से देखना (3) घटना का रूपान्तर हो जाना, किन्तु मूल संस्कार वहो है, अभिभावक द्वारा भयभीत करने पर स्वप्न में किसी कर व्यक्ति प्रादि को देखकर भयभीत होना (4) पूरी घटनाएँ नाटक के रूप में स्वप्न में ग्राना। चार्ल्स युग७३ स्वप्न को केवल अनुभव की प्रतिक्रिया नहीं मानते हैं। वे स्वप्न को मानव के व्यक्तित्व का विकास और भावी जीवन का द्योतक मानते हैं। फ्रायड और युग के स्वप्न संबंधी विचारों में मुख्य रूप से अन्तर यह है कि फ्रायड यह मानता है कि अधिकांश स्वप्न मानव की कामवासना से सम्बन्धित होते है जब कि युग का मन्तव्य है कि स्वप्नों का कारण मानव के केवल वैयक्तिक अनुभव अथवा उसकी स्वार्थमयी इच्छानों का दमन मात्र ही नहीं होता अपितु उसके गंभीरतम मन की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी होती हैं। स्वप्न में केवल दमित भावनाओं की अभिव्यक्ति की बात पूर्ण संगत नहीं है, वह केवल संयोग मात्र ही नहीं है, किन्तु उसमें अभूतपूर्व सत्यता भी रही हुई होती है। प्राचार्य जिनसेन ने स्वस्थ अवस्था वाले और अस्वस्थ अवस्था वाले, ये दो स्वप्न के प्रकार माने हैं। जब शरीर पूर्ण स्वस्थ होता है तो मन पूर्ण शांत रहता है, उस समय जो स्वप्न दीखते हैं वह स्वस्थ अवस्था वासा स्वप्न है। ऐसे स्वप्न बहुत ही कम आते हैं और प्राय: सत्य होते हैं / मन विक्षिप्त हो और शरीर अस्वस्थ हो उस समय देखे गये स्वप्न असत्य होते हैं। प्राचार्य ने दोषसमुद्भव और देवसमुदभव 5 इस प्रकार स्वप्न के दो भेद भी किये हैं। वात, पित्त, कफ प्रभति शारीरिक विकारों के कारण जो स्वप्न पाते हैं वे दोषज हैं। इष्टदेव या मानसिक समाधि की स्थिति में जो स्वप्न पाते हैं वे देवसमुद्भव हैं। स्थानांग७६ और भगवती७७ में यथातथ्य स्वप्न, (जो स्वप्न में देखा है जागने पर उसी तरह देखना, अर्थात् अनुकल-प्रतिकूल शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति) प्रतानस्वप्न (विस्तार से देखना) चिन्तास्वप्न (मन में रही हुई चिन्ता को स्वप्न में देखना) तद्विपरीत स्वप्न (स्वप्न में देखी हुई घटना का विपरीत प्रभाव) अव्यक्त स्वप्न (स्वप्न में दिखाई देने वाली वस्तु का पूर्ण ज्ञान न होना), इन पाँच प्रकार के स्वप्नों का वर्णन है / 73. हिन्दी विश्वकोश खण्ड-१२ पृ० 264 74. ते च स्वप्ना द्विधा भ्रात: स्वस्थास्वस्थात्ममोचराः / समस्तु धातुभिः स्वस्वविषमैरित रैर्मता / तथ्या स्युः स्वस्थसंहष्टा मिथ्या स्वप्नो विपर्ययात् / जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम / / ----महापुराण 41-59/60 75. वही सर्ग 41/61 76. स्थानांग-५ 77. भगवती-१६-६ 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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