________________ पढमं अज्झायन: उक्तित्तजाए प्रारम्भ--- १-तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नामं नयरी होत्था, वण्णओ'। उस काल में अर्थात् इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में और उस समय में अर्थात् कणिक राजा के समय में चम्पा नामक नगरी थी / उसका वर्णन उववाईसूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए / २-तीसे णं चम्पाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे विसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्था, वण्णओ। उस चम्पा नगरी के बाहर, उत्तरपूर्व दिक्-कोण में अर्थात् ईशानभाग में, पूर्णभद्र नामक चैत्य था / उसका भी वर्णन उववाईसूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए। ३-तत्थ गं चम्पाए णयरीए कोणिओ नाम राया होत्था, वण्णओ / चम्पा नगरी में कणिक नामक राजा था। उसका भी वर्णन उववाईसूत्र से जान लेना चाहिए। आर्य सुधर्मा ४--तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नाम थेरे जाइसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बल-रूप-विणय-णाण-दंसण-चरित्त-लाघव-संपन्ने ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसो, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जियइंदिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे, जीवियास-मरणभयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे, एवं करण-चरण-निग्गह-णिच्छय-अज्जव-मद्दव-लाघव-खंतिगत्ति-मुत्ति-विज्जा-मंत-बंभ-वेय-नय-नियम-सच्च-सोय-णाण-दसण-चरित्तप्पहाणे घोरव्वए घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छ्ढसरीरे, संखित-विउलतेउलेस्से, चोद्दसपुव्वी, चउनाणोवगए, पंचहि अणगारसएहि द्धि संपरिवुडे पुदवाणुपुटिव चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे, जेणेव चम्पा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ; ओगिण्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति / उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मानामक स्थविर थे। वे जातिसम्पन्न-उत्तम मातृपक्ष वाले थे, कुलसम्पन्न-उत्तम पितृपक्ष वाले थे, उत्तम संहनन से उत्पन्न बल से युक्त थे, अनुत्तर विमानवासी देवों की अपेक्षा भी अधिक रूपवान थे. विनयवान.चार ज्ञानवान, क्षायिक सम्यक्त्ववान्, लाघववान् (द्रव्य से अल्प उपधि वाले और भाव से ऋद्धि, रस एवं साता रूप तीन गौरवों से रहित) थे, प्रोजस्वी अर्थात् मानसिक तेज से सम्पन्न या चढ़ते परिणाम वाले, तेजस्वी अर्थात् शारीरिक कान्ति से देदीप्यमान, वचस्वी--सगुण वचन वाले, यशस्वी, क्रोध को जीतने वाले, 1. औपपातिक सूत्र 1, 2. प्रोप० सूत्र 2, 3. प्रौप. सूत्र. 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org