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________________ [ज्ञाताधर्मकथा मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, लोभ को जीतने वाले, पाँचों इन्द्रियों को जीतने वाले, निद्रा को जीतने वाले, परीषहों को जीतने वाले, जीवित रहने की कामना और मृत्यु के भय से रहित, तपःप्रधान अर्थात् अन्य मुनियों की अपेक्षा अधिक तप करने वाले या उत्कृष्ट तप करने वाले, गुणप्रधान अर्थात् गुणों के कारण उत्कृष्ट या उत्कृष्ट संयम-गुण वाले, करणप्रधान-पिण्डविशुद्धि आदि करणसत्तरी में प्रधान, चरणप्रधान—महाव्रत आदि चरणसत्तरी में प्रधान,निग्रहप्रधान–अनाचार में प्रवृत्ति न करने के कारण उत्तम, तत्त्व का निश्चय करने में प्रधान, इसी प्रकार प्रार्जवप्रधान, मार्दवप्रधान, लाघवप्रधान, अर्थात् क्रिया करने के कौशल में प्रधान, क्षमाप्रधान, गुप्तिप्रधान, मुक्ति (निर्लोभता) में प्रधान, देवता-अधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं में प्रधान, मंत्रप्रधान अर्थात् हरिणगमेषी ग्रादि देवों से अधिष्ठित विद्यानों में प्रधान, ब्रह्मचर्य अथवा समस्त कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेदप्रधान अर्थात् लौकिक एवं लोकोत्तर प्रागमों में निष्णात, नयप्रधान, नियमप्रधान-भाँति-भाँति के अभिग्रह धारण करने में , सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञानप्रधान, दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान, उदार अर्थात अपनी उग्र तपश्चर्या से समीपवर्ती अल्पसत्त्व वाले मनुष्यों को भय उत्पन्न करने वाले, घोर अर्थात परीषहों, इन्द्रियों और कषायों आदि आन्तरिक शत्रुओं का निग्रह करने में कठोर, घोरव्रती अर्थात् महाव्रतों को आदर्श रूप से पालन करने वाले, घोर तपस्वी, उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शरीरसंस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाविष्ट करके रखने वाले, चौदह पूर्षों के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धनी, पाँच सौ साधुनों से परिवृत, अनुक्रम से चलते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, उसी जगह आये। पाकर यथोचित अवग्रह को ग्रहण किया, अर्थात् उपाश्रय की याचना करके उसमें स्थित हुए। अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। ५---तए णं चंपाए नयरीए परिसा निग्गया। कोणिओ निग्गओ। धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिसं पाउन्भूआ, तामेव दिसि पडिगया। तत्पश्चात् चम्पा नगरी से परिषद् (जनसमूह) निकली / कूणिक राजा भी (बन्दना करने के लिए) निकला। सुधर्मा स्वामी ने धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। जम्बूस्वामी ६-तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स जेठे अंतेवासी अज्जजंबूणाम अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव [समचउरंस-संठाण-संठिए, वइररिसहनाराय-संघयणे, कणग-पुलगनिधस-पम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, उराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छ्ढसरीरे, संखित्त-विउलतेउलेस्से] अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उद्धृजाणू अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति / उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जम्बू नामक अनगार थे, जो काश्यप गोत्रीय और सात हाथ ऊँचे शरीर वाले, [समचौरस संस्थान तथा वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन वाले थे, कसौटी पर खींची हुई स्वर्ण रेखा के सदश तथा कमल के गर्भ के समान गौरवर्ण थे / . उग्र तपस्वी, कर्मवन को दग्ध करने के लिए अग्नि के समान तेजोमय तप वाले, तप्ततपस्वी-अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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