________________ 428 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् आमंत्रित किए हुए वासुदेव आदि बहुसंख्यक हजारों राजाओं में से प्रत्येक प्रत्येक ने स्नान किया / वे कवच धारण करके तैयार हुए और सजाए हुए श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ हुए / फिर घोड़ों, हाथियों, रथों और बड़े-बड़े भटों के समूह के समूह रूप चतुरंगिणी सेना के साथ अपने-अपने नगरों से निकले / निकल कर पंचाल जनपद की ओर गमन करने के लिए उद्यत हुए / स्वयंवर मंडप का निर्माण १०८-तए णं से दुवए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानदीए अदूरसामंते एगं महं सयंवरमंडवं करेह अणेगखंभसयसन्निविट्ठ, लीलट्ठियसालभंजियागं' जाव' पच्चप्पिणंति। उस समय द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और कांपिल्यपुर नगर के बाहर गंगा नदी से न अधिक दूर और न अधिक समीप में, एक विशाल स्वयंवर-मंडप बनाओ, जो अनेक सैकड़ों स्तंभों से बना हो और जिसमें लीला करती हुई पुतलियाँ बनी हों। जो प्रसन्नताजनक, सुन्दर, दर्शनीय एवं अतीव रमणीक हो / ' उन कौटुम्बिक पुरुषों ने मंडप तैयार करके प्राज्ञा वापिस सौंपी। आवास-व्यवस्था १०९-तए णं से दुवए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वासुदेवपामोक्खाणं बहुणं रायसहस्साणं आवासे करेह / ' ते वि करिता पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने फिर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनसे कहा'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही वासुदेव वगैरह बहुसंख्यक सहस्रों राजाओं के लिए आवास तैयार करो।' उन्होंने आवास तैयार करके प्राज्ञा वापिस लौटाई / ११०–तए णं दुवए राया वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आगमणं जाणेत्ता पत्तेयं पत्तेयं हत्थिखंघंवरगए जाव परिवुडे अग्धं च पज्जं च गहाय सविड्ढीए कंपिल्लपुराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताई वासुदेवपामुक्खाई अग्घेण य पज्जेण य सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता तेसि वासुदेवपामुक्खाणं पत्तेयं पत्तेयं आवासे वियरइ। __ तत्पश्चात् द्रुपद राजा वासुदेव प्रभृति बहुत से राजाओं का आगमन जानकर, प्रत्येक राजा का स्वागत करने के लिए हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर यावत् सुभटों के परिवार से परिवृत होकर अर्घ्य (पूजा की सामग्री) और पाद्य (पैर धोने के लिए पानी) लेकर, सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ कांपिल्यपुर से बाहर निकला ! निकलकर जिधर वासुदेव आदि बहुसंख्यक हजारों राजा थे, उधर गया / वहाँ जाकर उन वासुदेव प्रभृति का अर्घ्य और पाद्य से सत्कार-सन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके उन वासुदेव आदि को अलग-अलग प्रावास प्रदान किए। 1. अ. 1 सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org