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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [397 तत्पश्चात् धर्मरुचि अनगार 'पाहार पर्याप्त है' ऐसा जानकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर निकले / निकलकर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर निकले / निकलकर सुभूमिभाग उद्यान में आए / आकर उन्होंने धर्मघोष स्थविर के समीप ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करके अन्न-पानी का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके हाथ में अन्न-पानी लेकर स्थविर गुरु को दिखलाया। स्थविर का आदेश १३-तए णं ते धम्मघोसा थेरा तस्स सालइयस्स नेहावगाढस्स गंधेण अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ नेहावगाढाओ एगं बिंदुगं गहाय करयलंसि आसाएइ, तित्तगं खारं कडुयं अखज्जं अभोज्ज विसभूयं जाणित्ता धम्मरुइं अणगारं एवं वयासी-'जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! एयं सालइयं जाव नेहावगाई आहारेसि तो णं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि, तं मा णं तुम देवाणुप्पिया! इमं सालइयं जाव आहारेसि, मा गं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / तं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! इमं सालइयं एगंतमणावाए अचित्ते थंडिले परिढुवेहि, परिदृवित्ता अन्नं फासुयं एसणिज्जं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिगाहेत्ता आहारं आहारहि / ' उस समय धर्मघोष स्थविर ने, उस शरदऋतु संबंधी तेल से व्याप्त शाक की गंध से उद्विग्न होकर-पराभव को प्राप्त होकर, उस शरदऋतु संबंधी एवं तेल से व्याप्त शाक में से एक बूद हाथ में ली, उसे चखा। तब उसे तिक्त, खारा, कड़वा, अखाद्य, अभोज्य और विष के समान जानकर धर्मरुचि अनगार से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम यह शरद्ऋतु संबंधी यावत् तेल वाला तूबे का शाक खानोगे तो तुम असमय में ही जीवन से रहित हो जानोगे, अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम इस शरदऋतु संबंधी शाक को मत खाना / ऐसा न हो कि असमय में ही तुम्हारे प्राण चले जाएँ। अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और यह शरद् ऋतु संबंधी तुबे का शाक एकान्त, आवागमन से रहित, अचित्त भूमि में परठ दो। इसे परठकर दूसरा प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण करके उसका पाहार करो।' 14-- तए णं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामंते थंडिल्लं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता तओ सालइयाओ एगं बिदुगं गहेइ. गहित्ता थंडलंसि निसिरइ / __तत्पश्चात् धर्मघोष स्थविर के ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से निकले / निकलकर सूभूमिभाग उद्यान से न अधिक दूर न अधिक समीप अर्थात् कुछ दूर पर उन्होंने स्थंडिल (भूभाग) की प्रतिलेखना करके उस शरद् सम्बन्धी तुबे के शाक की बूद ली और उस भूभाग में डाली। परठने से होने वाली हिंसा-स्वशरीर में प्रक्षेप १५--तए णं तस्स सालइयस्स तितकडुयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधणं बहूणि विपीलिगासहस्साणि पाइन्भूयाई। जा जहा य णं पिपीलिगा आहारेइ सा तहा अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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