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________________ 398] [ ज्ञाताधर्मकथा तए णं तस्स धम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-'जइ ताव इमस्स सालइयस्स जाव एगंमि बिदुगंमि पक्खित्तंमि अणेगाइं पिपीलिगासहस्साई ववरोविजंति, तं जई णं अहं एयं सालइयं थंडिल्लंसि सव्वं निसिरामि, तए णं बहूणं पाणाणं भूआणं जीवाणं सत्ताणं वहकारणं भविस्सइ / तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जाव गाढं सयमेव आहारेत्तए, मम चेव एएणं सरीरेणं णिज्जाउ' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता मुहपोत्तियं पडिलेहइ, पडिलेहित्ता ससोसोवरियं कायं पमज्जेइ, पमज्जित्ता तं सालइयं तित्तकडुयं बहुनेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणणं सव्वं सरीरकोळंसि पक्खिवई। तत्पश्चात् उस शरद् संबंधी तिक्त कटुक और तेल से व्याप्त शाक की गंध से बहुत-हजारों कीडिया वहाँ आ गईं। उनमें से जिस कीड़ी ने जैसे ही शाक खाया, वैसे ही वह असमय में हो मृत्यु को प्राप्त हुई। तब धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हया यदि इस शरद् संबंधी यावत शाक का एक बिन्दु डालने पर अनेक हजार कीडियाँ मर गई, तो यदि मैं सबका सब यह शाक भूमि पर डाल दूंगा तो यह बहुत-से प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के वध का कारण होगा। अतएव इस शरद् संबंधी यावत् तेल वाले शाक को स्वयं ही खा जाना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा। यह शाक इसी (मेरे) शरीर से ही समाप्त हो जाय-झर जाय / अनगार ने ऐसा विचार करके मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की / प्रतिलेखना करके मस्तक सहित ऊपर शरीर का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन करके वह शरद् सम्बन्धी तुबे का तिक्त कटुक और बहुत तेल से व्याप्त शाक स्वयं ही, आस्वादन किए बिना अपने शरीर के कोठे में डाल लिया। जैसे सर्प सीधा ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह पाहार सीधा उनके उदर में चला गया। १६-तए णं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहत्तंतरेणं परिणममाणंसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव [विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा] दुरहियासा। शरद् सम्बन्धी तुबे का यावत् तेल वाला शाक खाने पर धर्मरुचि अनगार के शरीर में, एक मुहूर्त में (थोड़ी-सी देर में) ही उसका असर हो गया। उनके शरीर में वेदना उत्पन्न हो गई। वह वेदना उत्कट थी, यावत् [विपुल, कर्कश, प्रगाढ तथा] दुस्सह थी। १७–तए णं धम्मरई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार-परक्कमे अधारणिज्जमिति कटु आयारभंडगं एगते ठवेइ, ठवित्ता थंडिल्लं पडिलेहइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथारेइ संथारित्ता दन्भसंथारगं दुरूहइ दुरूहित्ता पुरत्याभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मस्थए अंजलि कट्ठ एवं वयासी-- शाक पेट में डाल लेने के पश्चात् धर्मरुचि अनगार स्थाम (उठने-बैठने की शक्ति) से रहित, बलहीन, वीर्य से रहित तथा पुरुषकार और पराक्रम से हीन हो गये / 'अब यह शरीर धारण नहीं किया जा सकता' ऐसा जानकर उन्होंने प्राचार के भाण्ड-पात्र एक जगह रख दिये। उन्हें रख कर स्थंडिल का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके दर्भ का संथारा बिछाया और वे उस पर आसीन हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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