________________ [ ज्ञाताधर्मकथा व्रतहीन, गुणहीण, प्रत्याख्यान और प्रोषधोपवास से रहित तथा बहुत-से द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृप-रेंग कर चलने वाले जंतुओं का घात, वध और उच्छेदन करने वाला था। इन सब दोषों और पापों के कारण वह अधर्म की ध्वजा था। बहुत नगरों में उसका (चोरी करने की बहादुरी का) यश फैला हुआ था। वह शूर था, दृढ़ प्रहार करने वाला, साहसी और शब्दवेधी (शब्द के आधार पर वाण चला कर लक्ष्य का वेधन करने वाला) था। वह उस सिंहगुफा में पांच सौ चोरों का अधिपतित्व करता हग्रा रहता था ! १२-तए णं से विजए तक्करे चोरसेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्तखणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य - बालघायगाण य वीसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेसि च बहूणं छिन्न-भिन्न बाहिरायाणं कुडंगे यादि होत्था। _वह चोरों का सेनापति विजय तस्कर दूसरे बहुतेरे चोरों के लिए, जारों के लिए, राजा के अपकारियों के लिए, ऋणियों के लिए, गठकटों के लिए, सेंध लगाने वालों के लिए, खात खोदने वालों के लिए बालघातकों के लिए, विश्वासघातियों के लिए, जुमारित्रों के लिए तथा खण्डरक्षकों (दंडपाशिकों) के लिए और मनुष्यों के हाथ-पैर आदि अवयवों को छेदन-भेदन करने वाले अन्य लोगों के लिए कुडंग (बाँस की झाड़ी) के समान शरणभूत था / अर्थात् जैसे अपराधी लोग राजभय से बाँस की झाड़ी में छिप जाते हैं अतः बाँस की झाड़ी उनके लिए शरण रूप होती है, उसी प्रकार विजय चोर भी अन्यायी-अत्याचारी लोगों का आश्रयदाता था / १३–तए णं से विजए तक्करे चोरसेणावई रायगिहस्स नगरस्स दाहिणपुरच्छिमं जणवयं बहूहि गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य वंदिग्गहणेहि य पंथकुट्टणेहि य खत्तखणणेहि य उवीलेमाणे उवीलेमाणे विद्धंसेमाणे-विद्धंसेमाणे णित्थाणं गिद्धणं करेमाणे विहरइ।। वह चोर सेनापति विजय तस्कर राजगृह नगर के दक्षिणपूर्व (अग्निकोण) में स्थित जनपदप्रदेश को, ग्राम के घात द्वारा, नगरपात द्वारा, गायों का हरण करके, लोगों को कैद करके, पथिकों को मारकूट कर तथा सेंध लगा कर पुनः पुनः उत्पीडित करता हुआ तथा विध्वस्त करता हुआ, लोगों को स्थानहीन एवं धनहीन बना रहा था। चोर-सेनापति की शरण में १४-तए णं से चिलाए दासचेडे रायगिहे णयरे बहूहि अत्थाभिसंकोहि य चोराभिसंकोहि य दाराभिसंकोहि य धणिएहि य जूयकरेहि य परब्भवमाणे परभवमाणे रायगिहाओ नयराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उपसंपज्जित्ता णं विहरइ / तत्पश्चात वह चिलात दासचेट राजगृह नगर में बहुत-से अर्थाभिशंकी (हमारा धन यह चुरा लेगा ऐसी शंका करने वालों), चौराभिशंकी (चोर समझने वालों), दाराभिशंकी (यह हमारी स्त्री को ले जायगा, ऐसी शंका करने वालों), धनिकों और जुआरियों द्वारा पराभव पाया हुआ--तिरस्कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org