________________ प्रार्या पुष्पचूला के पास दीक्षा ग्रहण को थी। (6) शुंभा (7) निशुंभा (8) रंभा (9) निरंभा और (10) मदना ये श्रावस्ती की थीं और पार्श्वनाथ के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की थी। (11) इला (12) सतेरा (13) सौदामिनी (14) इन्द्रा (15) घना और (16) विद्यता ये वाराणसी की थीं और श्रेष्ठियों की लडकियां थीं। इन्होंने भी पार्श्वनाथ के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की थी। (17) रुचा (18) सुरुचा (19) रुचांशा (20) रुचकावती (21) रुचकान्ता (22) रुचप्रभा ये चम्पा नगरी की थीं। इन्होंने भी पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षा ग्रहण की थी। (23) कमला (24) कमलप्रभा (25) उत्पला (26) सुदर्शना (27) रूपवती (28) बहुरूपा (29) सुरूपा (30) सुभगा (31) पूर्णा (32) बहुपुत्रिका (33) उत्तमा (34) भारिका (35) पद्मा (36) वसुमती (37) कनका (38) कनकप्रभा (39) अवतंसा (40) केतुमती (41) वज्रसेना (42) रतिप्रिया (43) रोहिणी (44) नोमिका (45) ह्री (46) पुष्पवती (47) भुजगा (48) भुजंगवती (49) माकच्छा (50) अपराजिता (51) सुघोषा (52) विमला (53) सुस्वरा (54) सरस्वती ये बत्तीस कुमारिकाएं नागपुर की थीं। भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से साधना के पथ पर अपने कदम बढ़ाये थे। एक बार भगवान पार्श्व साकेत नगरी में पधारे। वहाँ बत्तीस कुमारिकाओं ने दीक्षा ग्रहण की। भगवान् पार्श्व अरुक्खुरी नगरी में पधारे। उस समय (87) सूर्यप्रभा (88) प्रातपा (89) अचिमाली (90) प्रभंकरा आदि ने त्याममार्ग को ग्रहण किया। एक बार भगवान् पार्श्व मथुरा पधारे / उस समय (91) चन्द्रप्रभा (92) दोष्णाभा (93) अचिमाली और (94) प्रभंकरा ने दीक्षा ग्रहण की। भगवान श्रावस्ती पधारे जहाँ पर (95) पद्मा और (96) शिवा ने संयम मार्ग की पोर कदम बढ़ाया। भगवान पार्श्व हस्तिनापुर पधारे। उस समय (97) सती और (98) अंजू ने श्रमणधर्म स्वीकार किया। भगवान् कांपिल्यपुर पधारे, वहाँ पर (99) रोहिणी और (100) नवमिका ने प्रबज्वा ग्रहण की। भगवान साकेत नगर में पुनः पधारे तो बहाँ पर (101) अचला और (102) अप्सरा ने दीक्षा ग्रहण की। एक बार भगवान वाराणसी पधारे / उस समय (103) कृष्ण (104) कृष्णराजि, ने और राजगह में (105) रामा और (106) रामरक्षिता ने श्रावस्ती में (107) वसु.और (108) वसुगुप्ता ने कोशांबी में (109) वसुमित्रा (110) वसंधरा ने दीक्षा ग्रहण की थी। ये सभी साध्वियों चारित्र की विराधक हो गई थीं। विराधना के कारण सभी देवियों के रूप में उत्पन्न हुई, पर देवियों का प्रायुष्य पूर्ण कर वे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगी और वहां से विशुद्ध चारित्र का पाराधन कर मोक्ष जाएंगी। व्याख्यासाहित्य ज्ञातासूत्र कथाप्रधान आगम होने से यह बहुत सरल माना गया, यद्यपि इस पागम की भाषा बहुत ही क्लिष्ट, साहित्यिक और समासबहल है। तथापि विषय सरल होने से इस पर व्याख्याएं बहुत कम लिखी गई हैं। इस पर न नियुक्ति लिखी गई, न भाष्य का निर्माण किया गया और न चूणि ही लिखी गई। सर्वप्रथम इस पर प्राचार्य अभयदेव ने संस्कृत भाषा में बत्ति लिखी / यह वृत्ति मूलसूत्र को स्पर्श कर लिखी हुई है। इस वृत्ति में शब्दार्थ की प्रधानता है। प्रारंभ में भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् चम्पा नगरी का परिचय देकर पूर्णभद्र चैत्य का परिचय दिया है। श्रेणिक सम्राट के पुत्र कोणिक का उल्लेख करके गणधर सुधर्मा का परिचय दिया गया है। प्रस्तुत सुत्र के नाम का स्पष्टीकरण किया गया है। प्रथम श्रुतस्कंध में उन्नीस ही अध्ययनों के कठिन शब्दों के अर्थ स्पष्ट करके प्रत्येक अध्ययन के अन्त में होने वाले विशेष अर्थ को प्रकट किया है। वृत्तिकार ने प्रथम अध्ययन का सार बताते हुए लिखा-प्रविधिपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले शिष्य को सही मार्ग पर लाने के लिए समय पर उपालंभ भी देना चाहिए। द्वितीय अध्ययन के प्रान्त में लिखा—बिना आहार के मोक्ष की साधना के लिए प्रवत्ति नहीं हो सकती। इसलिए शरीर को आहार देना चाहिए। तृतीय अध्ययन का 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org