________________ लियदा। तीन दिन की साधना से पुण्डरीक तेतीस सागर की स्थिति का उपभोग करने वाला सर्वार्थसिद्धि विमान में देव बना और कण्डरीक भोगों में प्रासक्त होकर तीन दिन में प्रायु पूर्ण कर तेतीस सागर की स्थिति में सातवें नरक का मेहमान बना। जो साधक वर्षों तक उत्कृष्ट साधना करते रहे किन्तु बाद में यदि वह साधना से च्युत हो जाता है तो उसकी दुर्गति हो जाती है और जिसका अन्तिम जीवन पूर्ण साधना में गुजरता है वह स्वल्प काल में भी सद्गति को वरण कर लेता है। इस तरह प्रथम श्रुतस्कंध में विविध दृष्टान्तों के द्वारा अहिंसा, अस्वाद, श्रद्धा, इन्द्रियविजय प्रभति प्राध्यात्मिक तत्त्वों का बहुत ही संक्षेप व सरल शैली में वर्णन किया गया है। कथावस्तु की वर्णनशैली अत्यन्त चित्ताकर्षक है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी जो शोधार्थी शोध करना चाहते हैं, उनके लिए पर्याप्त सामग्री है। उस समय की परिस्थिति, रीति-रिवाज, खान-पान सामाजिक स्थितियां और मान्यतामों का विशद विश्लेषण भी इस पागम में प्राप्त होता है। शैली की दृष्टि से धर्मनायकों का यह आदर्श रहा है। भाषा और रचना शैली की अपेक्षा जीवननिर्माण की शैली का प्रयोग करने में वे दक्ष रहे हैं / आधुनिक कलारसिक पागम की धर्मकथाओं में कला को देखना अधिक पनन्द करते हैं। आधुनिक कहानियों के तत्त्वों से और शैली से उनकी समता करना चाहते हैं / पर वे भूल जाते हैं कि ये कथाएं बोधकथाएँ हैं। इनमें जीवन निर्माण की प्रेरणा है, न कि कला के लिए कलाप्रदर्शन / यदि वे बोध प्राप्त करने की दृष्टि से इन कथाओं का पारायण करेंगे तो उन्हें इनमें बहुत कुछ मिल सकेगा। रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि दूध में जामन डालने के पश्चात् उस दूध को छूना नहीं चाहिए और न कुछ समय तक उस दूध को हिलाना चाहिए। जो दूध जामन डालने के पश्चात् स्थिर रहता है वही बढिया जमता है / इसी तरह साधक को साधना में पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। दो अण्डेवाले रूपक में यह स्पष्ट की गई है और यह भी बाताया गया है कि साधक को शीघ्रता भी नहीं करनी चाहिए / शीघ्रता करने से उसी तरह हानि होती है जैसे कर्म की कथा में बताया गया है। उत्कृष्ट साधना के शिखर पर आरूढ व्यक्ति जरा-सी प्रसावधानी से नीचे गिर सकता है, जैसे शैलक राजषि। इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि शिष्य का क्या कर्तव्य होना चाहिए ? गुरु साधना से स्खलित हो जाये तथापि शिष्य को स्वयं जागृत रहकर गुरु की शुश्रूषा करनी चाहिए, जैसे पंथक ने स्वयं का उद्धार किया और गुरु का भी। मल्ली भगवती ने भोग के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़ने वाले और रूप लावण्य के पीछे दीवाने बने हए राजानों को विशुद्ध सदाचार का मार्ग प्रदर्शित किया। शरीर के अन्दर में रही हई गन्दगी को बताया और उनके हृदय का परिवर्तन किया / बौद्ध भिक्षुणी शुभा पर एक कामुक व्यक्ति मुग्ध हो गया था। भिक्षुणी ने अपने नाखुनों से अपने नेत्र निकालकर उसके हाथ में थमा दिये और कहा--जिन नेत्रों पर तुम मुग्ध हो वे नेत्र तम्हें समर्पित कर रही हैं। पर उस कथा से भी मल्ली भगवती की कथा अधिक प्रभावशाली है। प्रस्तुत आगम में जो कथाएं आई हैं, उनमें कहीं पर भी सांप्रदायिकता या संकुचितता नहीं है / यद्यपि ये कथाएं जैन श्रमणश्रमणियों को लक्ष्य में लेकर कही गई हैं, पर ये सार्वभौमिक हैं। सभी धर्म और सम्प्रदायों के अनुयायियों के लिए परम उपयोगी हैं। सभी धर्म सम्प्रदायों का अंतिम लक्ष्य षडरिपुत्रों को जीतना और मोक्ष प्राप्त करना है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए ऐश्वर्य के प्रति विरक्ति, इन्द्रियों का दमन व शमन आवश्यक है। यही इन कथाओं का हार्द है। हम पूर्व ही लिख चुके हैं कि झातासूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएँ हैं / इसमें चमरेन्द्र, बलीन्द्र, धरणेन्द्र, पिशाचेन्द्र, महाकालेन्द्र, शकेन्द्र, ईशानेन्द्र श्रादि की अग्रमहिषियों के रूप में उत्पन्न होनेवाली साध्वियों की कथाएं हैं। इनमें से अधिकांश साध्वियों भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुई थीं / ऐतिहासिक दष्टि से इन साध्वियों का अत्यधिक महत्त्व है। इस श्रुतस्कंध में पार्श्वकालीन श्रमणियों के नाम उपलब्ध हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) काली (2) राजी (3) रजनी (4) विद्युत (5) मेघा, ये प्रामलकप्पा नगर की थीं और इन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org