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________________ 32] [ज्ञाताधर्मकथा डोहलं विणिज्जामि / तए णं हं सामो ! अयमेयारूबंसि अकाल-दोहसि अविणिज्जमाणंसि ओलुग्गा जाव अट्ट ज्झाणोवगया झियायामि / एएणं अहं कारणेणं सामी ! ओलुग्गा जाव अज्झाणोवगया झियायामि। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा द्वारा शपथ सुनकर धारिणी देवी ने श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा--स्वामिन् ! मुझे वह उदार आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाला महास्वप्न पाया था। उसे आए तान मास पूरे हो चुके हैं, अतएव इस प्रकार का अकाल-मेघ संबंधी दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं और वे माताएँ कृतार्थ हैं, यावत् जो वैभार पर्वत की तलहटी में भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं / अगर मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करू तो धन्य होऊँ। इस कारण हे स्वामिन् / मैं इस प्रकार के इस दोहद के पूर्ण न होने से जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली हो गई हूँ; यावत् पार्तध्यान करती हुई चिन्तित हो रही हूँ / स्वामिन् ! जीर्ण-सी--यावत् प्रार्तध्यान से युक्त होकर चिन्ताग्रस्त होने का यही कारण है। ५७.--तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म धारिणि देवि एवं बदासी--'मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा जाव झियाहि, अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं तुम्भं अयमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सई' त्ति कट्ट धारिणि देवि इहाहि कंताहिं पियाहि मणुन्नाहि मणामाहिं वग्गहि समासासेइ। समासासित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणामेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता सोहासणवरगए पुरत्याहिमुहे सन्निसन्ने। धारिणीए देवीए एयं अकालदोहलं बहूहि आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य चउविहाहि बुद्धीहि अणुचितेमाणे अणुचितेमाणे तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा उप्पत्ति वा अविदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से यह बात सुनकर और समझ कर, धारिणी देवी से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिये ! तुम जीर्ण शरीर वाली मत होमो, यावत् चिन्ता मत करो। मैं वैसा करूंगा अर्थात् कोई ऐसा उपाय करूगा जिससे तुम्हारे इस अकाल-दोहद की पूर्ति हो जाएगी। इस प्रकार कहकर श्रेणिक ने धारिणी देवी को इष्ट (प्रिय), कान्त (इच्छित), प्रिय-प्रीति उत्पन्न करने वाली, मनोज्ञ (मनोहर) और मणाम (मन को प्रिय) वाणी से आश्वासन दिया। अाश्वासन देकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया / प्राकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठा। धारिणी देवी के इस अकाल-दोहद की पूर्ति करने के लिए बहुतेरे प्रायों (लाभों) से, उपायों से, औत्पत्तिकी बुद्धि से, वैनयिक बुद्धि से, कार्मिक बुद्धि से, पारिणामिक बुद्धि से इस प्रकार चारों तरह की बुद्धि से बार-बार विचार करने लगा / परन्तु विचार करने पर भी उस दोहद के लाभ को, उपाय को, स्थिति को और निष्पत्ति को समझ नहीं पाता, अर्थात दोहदपति का कोई उपाय नहीं सूझता। अतएव श्रेणिक राजा के मन का संकल्प नष्ट हो गया और वह भी यावत् चिन्ताग्रस्त हो गया। अभयकुमार का आगमन ५८-तयाणंतरं अभए कुमारे व्हाए कयबलिकम्मे जाव सव्वालंकारविभूसिए पायवंदए पहारेत्थ गमणाए। तदनन्तर अभयकुमार स्नान करके, बलिकर्म (गृहदेवता का पूजन) करके, यावत् [कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके] समस्त अलंकारों से विभूषित होकर श्रेणिक राजा के चरणों में वन्दना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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