________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [ 289 ११–तए णं तोए णावाए भिज्जमाणीए बहवे पुरिसा विपुलपडियभंडमायाए अंतोजलम्मि णिमज्जा यावि होत्था। तए णं मागंदियदारगा छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउसिप्पोवगया बहुसु पोतवह संपराएसु कयकरणा लद्धविजया अमूढा अमूढहत्था एगं महं फलगखंड आसादेति / तत्पश्चात् उस नौका के भग्न होकर डूब जाने पर बहुत-से लोग बहुत-से रत्नों, भांडों और माल के साथ जल में डूब गये। परन्तु दोनों माकन्दोपुत्र चतुर, दक्ष, अर्थ को प्राप्त, कुशल, बुद्धिमान्, निपुण, शिल्प को प्राप्त, बहुत-से पोतवहन के युद्ध जैसे खतरनाक कार्यों में कृतार्थ, विजयी, मूढतारहित और फुर्तीले थे / अतएव उन्होंने एक बड़ा-सा पटिया का टुकड़ा पा लिया। रत्न-द्वीप १२--जस्सि च णं पदेसंसि पोयवहणे विवन्ने, तंसि च णं पदेसंसि एगे महं रयणद्दीवे णामं दोवे होत्था / अगाई जोअणाई आयामविक्खंभेणं, अणेगाई जोअणाइं परिक्खेवेणं, नानादुमखंड. मंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाईए दंसणिज्जे अभिरूवे पडिरूबे / तस्स गं बहुमज्झदेसभाए तत्थ णं महं एगे पासायव.सए होत्था-अन्भुग्गयमूसियपहसिए जाव' सस्सिरीभूयरूवे पासाईए दंसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। जिस प्रदेश में वह पोतवहन नष्ट हुअा था, उसो प्रदेश में उसके पास ही, एक रत्नद्वीप नामक बड़ा द्वीप था / वह अनेक योजन लम्बा-चौड़ा और अनेक योजन के घेरे वाला था। उसके प्रदेश अनेक प्रकार के वक्षों के वनों से मंडित थे। वह द्वीप सुन्दर सुषमा वाला, प्रसन्नता वाला, दर्शनीय, मनोहर और प्रतिरूप था अर्थात् दर्शकों को नए-नए रूप में दिखाई देता था। उसी द्वीप के एकदम मध्यभाग में एक उत्तम प्रासाद था। उसकी ऊँचाई प्रकट थी,-वह बहुत ऊँचा था। वह भी सश्रीक, प्रसन्नताप्रदायो, दर्शनीय, मनोहर रूप वाला और प्रतिरूप था। रत्न-द्वीपदेवी 13- तत्थ णं पासायव.सए रयणद्दीवदेवया नाम देवया परिवसइ पावा, चंडा, रुद्दा, खुद्दा, साहसिया। तस्स णं पासायवडेंसयस्त चउद्दिसि चत्तारि वणसंडा किण्हा, किण्होभासा। उस उत्तम प्रासाद में रत्नद्वीपदेवता नाम की एक देवी रहती थी / वह पापिनी, चंडा-अति पापिनी, भयंकर, तुच्छ स्वभाव वाली और साहसिक थी। (इस देवी के शेष विशेषण विजय चोर के समान जान लेने चाहिए)। उस उत्तम प्रासाद की चारों दिशाओं में चार वनखंड (उद्यान) थे। वे श्याम वर्ण वाले और श्याम कान्ति वाले थे (यहाँ वनखण्ड के पूर्व वणित अन्य विशेषण समझ लेना चाहिए)। १४-तए णं ते मार्गदियदारगा तेणं फलयखंडेणं उबुज्झमाणा उवुज्झमाणा रयणदीवंतेणं संबूढा यादि होत्था। 1. प्र. अ. 103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org