________________ 462 ] [ ज्ञाताधर्मकथा २०६-तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था--'अहो णं पंच पंडवा महाबलवग्गा, जेहि गंगा महाणदी बाढि जोयणाई अद्धजोयणं च वित्थिना बाहाहि उत्तिण्णा / इच्छंतएहि णं पंचहिं पंडवेहि पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए।' तए णं गंगा देवी कण्हस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं जाव जाणित्ता थाहं वियरइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे मुहत्तंतरं समासासेइ, समासासित्ता गंगामहादि बाटि जाव उत्तरइ, उत्तरित्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंच पंडवे एवं वयासी—अहो णं लुबभे देवाणुप्पिया ! महाबलवगा, जेणं दुब्भेहिं गंगा महाणदी वासट्टि जाव उत्तिण्णा, इच्छंतहि पउमनाहे जाव णो पडिसेहिए। उस समय कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार का विचार पाया कि-'अहा, पांच पाण्डव वड़े बलवान् हैं, जिन्होंने साढ़े बासठ योजन विस्तार (पाट) वाली गंगा महानदी अपने बाहुओं से पार करली ! (जान पड़ता है कि पांच पाण्डवों ने इच्छा करके अर्थात् चाह कर या जान-बूझकर ही पद्मनाभ राजा को पराजित नहीं किया / ' तब गंगा देवी ने कृष्ण बासुदेव का ऐसा अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प जानकर थाह दे कर दिया। उस समय कष्ण वासदेव ने थोडी देर विश्राम किया। विश्राम लेने के बाद साढ़े बासठ योजन विस्तृत गंगा महानदी पार की / पार करके पांच पाण्डवों के पास पहुँचे / वहाँ पहुँच कर पांच पाण्डवों से बोले...-'अहो देवानुप्रियो ! तुम लोग महाबलवान् हो, क्योंकि तुमने साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी अपने बाहुबल से पार की है / तब तो तुम लोगों ने चाह कर ही पद्मनाभ को पराजित नहीं किया।' २०७-तए णं पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुब्भेहि विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महाणदी तेणेव उवागच्छामो, उवागच्छित्ता एगट्टियाए मग्गणगवेसणं तं चेव जाव णमेमो, तुम्भे पडिवालेमाणा चिट्ठामो।' ___ तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर पांच पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से कहा- 'देवानुप्रिय ! आपके द्वारा विसर्जित होकर अर्थात् आज्ञा पाकर हम लोग जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ पाये। वहाँ आकर हमने नौका की खोज की / उस नौका से पार पहुँच कर आपके बल की परीक्षा करने के लिए हमने नौका छिपा दी। फिर आपकी प्रतीक्षा करते हुए हम यहाँ ठहरे हैं।' श्रीकृष्ण का पाण्डवों पर रोष--देशनिर्वासन २०८–तए णं कण्हे वासुदेवे तेसि पंचण्हं पंडवाणं एयमढं सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव' तिवलियं एवं वयासी—'अहो णं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयसहस्सा वित्थिन्नं वोईवइता पउमणाभं यमहिय जाव पडिसेहित्ता अमरकंका संभग्गा, दोवई साहत्थि उवणीया, तया णं तुभेहि मम माहप्पं ण विण्णायं, इयाणि जाणिस्सह !' त्ति कट्ट लोहदंडं परामुसइ, पंचण्हं पंडवाणं रहे चूरेइ, चरित्ता णिव्विसए आणवेइ आणवित्ता तत्थ णं रहमद्दणे नामं कोठे णिविट्ठ। पांच पाण्डवों का यह अर्थ (उत्तर) मुनकर और समझ कर कृष्ण वासुदेव कुपित हो उठे 1. अ. 16 सूत्र 203 , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org