________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [461 अनिष्ट किया है ? इस प्रकार कहकर वह क्रुद्ध हुए, यावत् [रुष्ट, कुपित, प्रचण्ड हुए, मस्तक पर त्रिवलियुक्त भृकुटि चढ़ाकर] पद्मनाभ को देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी। पद्मनाभ के पुत्र को अमरकंका राजधानी में महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया / यावत् कपिल वासुदेव वापिस चले गये। २०४-तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीइवयइ, गंगं उवागए, ते पंच पंडवे एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! गंगामहानदि उत्तरह जाव ताव अहं सुट्टियं देवं लवणाहिवई पासामि।' तए णं पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेंति, करिता एगट्टियाए नावाए गंगामहानदि उत्तरंति, उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति-'पहू णं देवाणुप्पिया ! कण्हे वासुदेवे गंगामहाणइं वाहाहि उत्तरित्तए ? उदाहु णो पभू उत्तरित्तए ?' त्ति कटु एगट्टियं नावं णूति, शूमित्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिट्ठति / इधर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के मध्य भाग से जाते हुए गंगा नदी के पास आये। तब उन्होंने पांच पाण्डवों से कहा---'देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ / जब तक गंगा महानदी को उतरो, तब तक मैं लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव से मिल लेता हूँ।' तब वे पांचों पाण्डव, कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर जहाँ गंगा महानदी थी वहाँ आये। आकर एक नौका की खोज की। खोज कर उस नौका से गंगा महानदी उतरे / उतरकर परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'देवानप्रिय ! कृष्ण वासदेव गंगा महानदी को अपनी भजात्रों से पार करने में समर्थ हैं अथवा समर्थ नहीं हैं ? (चलो, इस बात की परीक्षा करें), ऐसा कह कर उन्होंने वह नौका छिपा दी / छिपा कर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते हुए स्थित रहे। २०५-तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई पासइ, पासित्ता जेणेव गंगा महाणदी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगट्टियाए सव्वओ समंता मम्गणगवेसणं करेइ, करिता एगट्टियं णावं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससाहिं गेण्हइ, एगाए बाहाए गंगं महादि वासटि जोयणाई अद्धजोयणं च विस्थिन्नं उत्तरिउं पयत्ते यावि होत्था / तए णं कण्हे वासुदेवे गंगामहाणईए बहूमझदेसभागं संपत्ते समाणे संते तंते परितते बद्धसेए जाए यावि होत्था। तत्पश्चात कृष्ण वासुदेव लवणाधिपति सुस्थित देव से मिले / मिलकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आये / वहाँ आकर उन्होंने सब तरफ नौका की खोज की, पर खोज करने पर भी नौका दिखाई नहीं दी। तब उन्होंने अपनी एक भुजा से अश्व और सारथी सहित रथ ग्रहण किया और दूसरी भुजा से बासठ योजन और प्राधा योजन अर्थात् साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी को पार करने के लिए उद्यत हुए। कृष्ण वासुदेव जब गंगा महानदी के बीचोंबीच पहुँचे तो थक गये, नौका की इच्छा करने लगे और बहुत खेदयुक्त हो गये। उन्हें पसीना आ गया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org