________________ [79 प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] मैथुनप्रिय, कामभोग से अतृप्त और कामभोग की तृष्णा वाले थे / बहुत से हाथियों वगैरह से परिवृत होकर वैताढ्य पर्वत के पादमूल में, पर्वतों में, दरियों (विशेष प्रकार की गुफाओं) में, कुहरों (पर्वतों के अन्तरों) में, कंदराओं में, उज्झरों (प्रपातों) में, झरनों में, विदरों (नहरों) में, गड़हों में, पल्पलों (तलैयों) में, चिल्ललों (कीचड़ वाली तलैयों) में, कटक (पर्वतों के तटों) में, कटपल्लवों (पर्वत की समीपवर्ती तलैयों) में, तटों में, अटवी में, टंकों (विशेष प्रकार के पर्वतों) में, कूटों (नीचे चौड़े और ऊपर सँकड़े पर्वतों) में, पर्वत के शिखरों पर, प्राग्भारों (कूछ के हुए पर्वतों के भागों) में, मंचों (नदी ग्रादि को पार करने के लिए पाटा डाल कर बनाए हुए कच्चे पुलों) पर, काननों में, वनों (एक जाति के वृक्षों वाले बगीचों) में, वनखंडों (अनेक जातीय वृक्षों वाले प्रदेशों) में, वनों की श्रेणियों में, नदियों में, नदीकक्षों (नदी के समीपवर्ती वनों) में, यूथों (वानर आदिकों के निवास स्थानों) में, नदियों के संगमस्थलों में, वापियों (चौकोर बावड़ियों) में, पुष्करणियों (गोल या कमलों वाली बावड़ियों) में, दीधिकारों (लम्बी वावड़ियों) में, गुजालिकानों (वक बावड़ियों) में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सरः-सर पंक्तियों (जहाँ एक सर से दूसरे सर में पानी जाने का मार्ग बना हो ऐसे सरों की पंक्तियों) में, वनचरों द्वारा तुम्हें विचार (विचरण करने की छूट) दी गई थी। ऐसे तुम बहुसंख्यक हाथियों आदि के साथ, नाना प्रकार के तरुपल्लवों, पानी और घास का उपयोग करते हुए निर्भय, और उद्वेगरहित होकर सुख के साथ विचरते थे-रहते थे। १६७-तए ण तुम मेहा ! अन्नया कयाई पाउस-वरिसारत्त-सरय-हेमंत-वसंतेसु कमेण पंचसु उउसु समइक्कतेसु, गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासे, पायवघंससमुट्टिएणं सुक्कतण-पत्त-कयवरमारुत-संजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदवजालासंपलितेसु वणंतेसु, घूमाउलासु दिसासु, महावायवेगेणं संघट्टिएसु, छिन्नजालेसु आवयमाणेसु, पोल्लरुक्खेसु अंतो अंतो झियायमाणेसु, मयकुहियविणिविटुकिमियकद्दमनदीवियरगजिण्णपाणीयंतेसु वर्णतेसु भिंगारक-दीण-कंदिय-रवेसु, खरफरुस-अणि?-रिद्ववाहित-विदुमग्गेसु दुमेसु, तण्हावस-मुक्क-पक्ख-पयडियजिब्भ-तालुयअसंपुडिततुंडपक्खिसंघेसु ससंतेसु, गिम्ह-उम्ह-उण्हवाय-खरफरुसचंडमारुय-सुक्कतण-पत्तकयरवाउलि-भमंतदित्तसंभंतसावयाउल-मिगतण्हाबद्धचिण्हपट्टेसु गिरिवरेसु, संवट्टिएसु तत्थ-मिय-पसव-सिरीसवेसु, अवदालियवयणविवरणिल्लालियग्गजीहे, महंततुबइयपुन्नकन्ने, संकुचियथोर-पीवरकरे, ऊसियलंगूले, पीणाइयविरसरडियसद्देणं फोडयंतेव अंबरतलं, पायदद्दरएणं कंपयंतेव मेइणितलं, विणिम्मुयमाणे य सीयार, सव्वओ समंता वल्लिवियाणाइं छिदमाणे, रुक्खसहस्साई तत्थ सुबहूणि णोल्लायंते विणट्टरछे ब्व गरवरिन्दे, वायाइद्धे व्व पोए, मंडलवाए व्व परिन्भमंते, अभिक्खणं अभिक्खणं लिडणियरं पमुचमाणे पच्चमाणे, बहूहि हत्थीहि य जाव' सद्धि दिसोदिसि विप्पलाइत्था / तत्पश्चात् एक बार कदाचित् प्रावृट, वर्षा, शरद्, हेमन्त और वसन्त, इन पांच ऋतुओं के क्रमश: व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्म ऋत का समय आया। तब ज्येष्ठ मास में, वक्ष की पापस की रगड़ से उत्पन्न हुई तथा सूखे घास, पत्तों और कचरे से एवं वायु के वेग से प्रदीप्त हुई अत्यन्त भयानक अग्नि से उत्पन्न वन के दावानल की ज्वालाओं से बन का मध्य भाग सुलग उठा / दिशाएँ धुएँ से व्याप्त हो गई / प्रचण्ड वायु-वेग से अग्नि की ज्वालाएँ टूट जाने लगी और चारों ओर गिरने लगीं। पोले वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे। वन-प्रदेशों के नदी-नालों का जल मृत मृगादिक के शवों से १.प्र. अ.१६५ Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org