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________________ 432] [ ज्ञाताधर्मकथा स्नानगृह में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर उसने स्नान किया यावत् शुद्ध और सभा में प्रवेश करने योग्य मांगलिक उत्तम वस्त्र धारण किये। जिन प्रतिमाओं का पूजन किया। पूजन करके अन्तःपुर में चली गई / * ११९.-तए णं तं दोवई रायवरकन्नं अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसियं करेंति, कि ते ? वरपायपत्तणेउरा जाव' चेडिया-चक्कवाल-मयहरग-विंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता किड्डावियाए लेहियाए सद्धि चाउग्घंटे आसरहं दुरूहइ / तत्पश्चात अन्तःपुर की स्त्रियों ने राजवरकन्या द्रौपदी को सब अलंकारों से विभूषित किया। किस प्रकार ? पैरों में श्रेष्ठ नूपुर पहनाए, (इसी प्रकार सब अंगों में भिन्न-भिन्न प्राभूषण पहनाए) यावत् वह दासियों के समूह से परिवृत होकर अन्तःपुर से बाहर निकली। बाहर निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला (सभा) थी और जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आई / प्राकर क्रीडा *इस पाठ के विषय में वाचनाभेद पाया जाता है। किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में उपलब्ध होने वाला पाठ ऊपर दिया गया है। यह पाठ शीलांकाचार्यकृत टीका में भी वाचनान्तर के रूप में ग्रहण किया गया है। किन्तु कछ अर्वाचीन प्रतियों में जो पाठान्तर पाया जाता है, वह इस प्रकार है: तए णं सा दोबई राजवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उबागच्छद, उवागच्छित्ता ण्हाया कयनलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई बत्थाई पवरपरिहिया मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवामच्छित्ता जिणघरं अणुपविसइ, अणपविसित्ता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ, करित्ता लोमहत्थयं परामुसइ, एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चइ, अच्चित्ता तहेव भाणियब्वं जाव धूवं उहइ, उहित्ता वामं जाणु अंचेइ, दाहिणं धरणियलंसि णिवेसेइ णिवेसित्ता तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि नमेड, नमइत्ता ईसि पच्चण्णमइ, करयल जाव कटु एवं वयासी...'नमोऽत्यु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं' वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जिणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छड़। अर्थात् तत्पश्चात् द्रौपदी राजवरकन्या स्नानगृह में गई / वहाँ जाकर उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, मसी तिलक प्रादि कौतुक, दूर्वादिक मंगल और अशुभ की निवृत्ति के अर्थ प्रायश्चित्त किया / शूद्ध और शोभा देने वाले मांगलिक वस्त्र धारण किये। फिर वह स्नानगृह से बाहर निकली। निकल कर जिनगह-जिनचैत्य में गई और उसके भीतर प्रविष्ट हुई। वहाँ जिनप्रतिमानों पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें प्रणाम किया। प्रणाम करके मयरपिच्छी ग्रहण की। फिर सूर्याभ देव की भाँति जिनप्रतिमाओं की पूजा की। पूजा करके उसी प्रकार (सूर्याभ देव की तरह) यावत् धूप जलाई / धूप जलाकर बायें घुटने को ऊँचा रक्खा और दाहिने घुटने को पृथ्वीतल पर रखकर मस्तक नमाया / नमाने के बाद मस्तक थोड़ा ऊपर उठाया। फिर दोनों हाथ जोड़ कर यावत मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा---'अरिहन्त भगवन्तों को यावत् सिद्धपद को प्राप्त जिनेश्वरों को नमस्कार हो।' ऐसा कह कर वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके जिनगह से बाहर निकली। बाहर निकल कर जहाँ अन्त:पुर था, वहाँ प्रागई। 1. प्र. 1 सू० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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