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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [431 मंचों (मचानों) और उनके ऊपर मंचों (मचानों) से युक्त करो। फिर वासुदेव आदि हजारों राजाओं के नामों से अंकित अलग-अलग प्रासन श्वेत वस्त्र से आच्छादित करके तैयार करो। यह सब करके मेरी प्राज्ञा बापिस लौटायो।' वे कौटुम्बिक पुरुष भी सब कार्य करके यावत् प्राज्ञा लौटाते हैं। स्वयंवर ११६-तए णं वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा कल्लं पाउप्पभायाए पहाया जाव विभूसिया हत्थिखंधवरगया सकोरंट सेयवरचामराहि हयगय जाव' परिबुडा सब्बिड्डीए जाव रवेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अणुपविसंति, अणुपविसित्ता पत्तेयं पत्तेयं नामंकिएसु आसणेसु निसीयंति, दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा चिट्ठति / तत्पश्चात् वासुदेव प्रभृति अनेक हजार राजा कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर स्नान करके यावत् विभूषित हुए / श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। उन्होंने कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किया। उन पर चामर ढोरे जाने लगे / अश्व, हाथी, भटों आदि से परिवत होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यध्वनि के साथ जिधर स्वयंवरमंडप था, उधर पहुँचे / मंडप में प्रविब्ट हुए / प्रविष्ट होकर पृथक्-पृथक् अपने-अपने नामों से अंकित अासनों पर बैठ गये और राजवरकन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे। ११७---तए गं से दुवए राया कल्लं पहाए जाव विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धारिज्जमाणेणं सेयचामराहि वीइज्जमाणे -गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवडे महया भडचडकर-रहपरिकरविंदपरिक्खित्ते कंपिल्लपुरं मझमज्झेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सयंवरमंडवे, जेणेव वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसि वासुदेवपामुक्खाणं करयल जाव वडावेत्ता कण्णस्स वासुदेवस्स सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिट्ठइ। तत्पश्चात् द्रुपद राजा प्रभात में स्नान करके यावत् विभूषित होकर, हाथी के स्कंध पर सवार होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण करके, अश्वों, गजों, रथों और उत्तम योद्धाओं वाली चतुरंगिणी सेना के साथ तथा अन्य भटों एवं रथों से परिवत होकर कांपिल्यपूर के मध्य से बाहर निकला / निकल कर जहाँ स्वयंवरमंडप था और जहाँ वासुदेव आदि बहुत-से हजारों राजा थे, वहाँ आया। प्राकर उन वासुदेव वगैरह का हाथ जोड़कर अभिनन्दन किया और कृष्ण वासुदेव पर श्रेष्ठ श्वेत चामर ढोरने लगा। ११८–तए णं सा दोवई रायवरकन्ना कल्लं पाउप्पभायाए जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता हाया जाव सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ, करित्ता जेणेब अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ / उधर वह राजवरकन्या द्रौपदी प्रभात काल होने पर स्नानगृह की ओर गई / वहाँ जाकर 1. अ. 16 सूत्र 114 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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