________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 257 जहाँ जितशत्रु राजा था, वहाँ आई / आकर भीतर प्रवेश किया। प्रवेश करके जय-विजय के शब्दों से जितशत्रु का अभिनन्दन किया-उसे बंधाया। उस समय जितशत्रु राजा ने चोक्खा परित्नाजिका को आते देखा। देखकर सिंहासन से उठा / उठकर चोक्खा परिवाजिका का सत्कार किया / सन्मान किया / सत्कार-सन्मान करके प्रासन के लिए निमंत्रण किया-बैठने को प्रासन दिया। ११८--तए णं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव [दब्भोवरि पच्चत्थुयाए] भिसियाए निविसइ, जियसत्त रायं रज्जे य जाव [रठे य कोसे य कोडागारे य बले य वाहणे य पुरे य] अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ / तए णं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रण्णो दाणधम्मं च जाव' विहरइ / तत्पश्चात् वह चोत्रखा परिव्राजिका जल छिड़ककर यावत् डाभ पर बिछाए अपने प्रासन पर बैठी / फिर उसने जितशत्रु राजा, यावत् [राष्ट्र, कोश, कोठार, बल, वाहन, पुर तथा] अन्त:पुर के कुशल-समाचार पूछे / इसके बाद चोक्खा ने जितशत्रु राजा को दानधर्म आदि का उपदेश दिया। ११९-तए णं से जियसत्तू अपणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं परिवाइयं एवं वयासी- 'तुमं गं देवाणुप्पिए ! बहूणि गामागर जाव अडसि, बहूण य राईसरगिहाई अणुपविससि, तं अस्थियाई ते कस्स वि रण्णो वा जाव [ईसरस्स वा कहिंचि] एरिसए ओरोहे दिट्ठपुव्वे जारिसए णं इमे मह उवरोहे ?' तत्पश्चात् वह जितशत्रु राजा अपने रनवास में अर्थात् रनवास की रानियों के सौन्दर्य आदि में विस्मययुक्त था, (अपने अन्त:पुर को सर्वोत्कृष्ट मानता था) अत: उसने चोक्खा परिवाजिका से पूछा-'हे देवानुप्रिय ! तुम बहुत-से गांवों, आकरों आदि में यावत् पर्यटन करती हो और बहुत-से राजाओं एवं ईश्वरों के घरों में प्रवेश करती हो तो कहीं किसी भी राजा आदि का ऐसा अन्तःपुर तुमने कभी पहले देखा है, जैसा मेरा यह अन्तःपुर है ?' १२०-तए णं सा चोक्खा परिवाइया जियसत्तुणा एवं वुत्ता समाणी ईसि अवहसियं करेइ, करित्ता एवं क्यासी-'एवं च सरिसए णं तुमे देवाणुप्पिया ! तस्स अगडददुरस्स।' 'केस णं देवाणुप्पिए ! से अगडददुरे ?' 'जियसत्तू ! से जहानामए अगडदद्दुरे सिया, से णं तत्थ जाए तत्थेव वुड्ढे, अई अगडं वा तलागं वा दहं वा सरं वा सागरं वा अपासमाणे एवं मण्णइ - 'अयं चेव अगडे वा जाव सागरे वा।' तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दद्दुरे हव्वमागए / तए णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्ददद्दूरं एवं वयासी-'से केस गं तुम देवाणुप्पिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए?' ____तए णं से सामुद्दए ददुरे तं कूबददुरं एवं क्यासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सामुष्टए दद्दुरे।' तए णं से कूवददुरे तं सामुद्दयं ददुरं एवं वयासो--'केमहालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?' 1. अष्टम न. 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org