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________________ [ ज्ञाताधर्मकथा और वह भेद को प्राप्त हुई अर्थात् उसके मन में तर्क-वितर्क होने लगा। वह मल्ली को कुछ भी उत्तर देने में समर्थ नहीं हो सकी, अतएव मौन रह गई। ११६--तए णं तं चोक्खं मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीलेंति, निदंति, खिसंति, गरहंति, अप्पेगइयाओ, हेरुयालंति, अप्पेगइयाओ मुहमक्कडियाओ करेंति, अप्पेगइयाओ वग्घाडीओ करेंति, अप्पेगइयाओ तज्जेमाणीओ करेंति, अप्पेगइयाओ तालेमाणीओ करेंति, अप्पेगइयाओ निच्छुभंति / तए णं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहि जाव गरहिज्जमाणी होलिज्जमाणी आसुरुत्ता जाब मिसमिसेमाणा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावज्जइ, भिसियं गेण्हइ, गेण्हित्ता कण्णंतेउराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, मिहिलाओ निग्गच्छइ, निग्गछित्ता परिवाइयासंपरिवुडा जेणेव पंचालजणवए जेणेव कंपिल्लपुरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं राईसर जाव' परवेमाणी विहरई। तत्पश्चात् मल्ली की बहुत-सी दासियां चोक्खा परिव्राजिका की (जाति आदि प्रकट करके) हीलना करने लगी, मन से निन्दा करने लगी, खिसा (वचन से निन्दा) करने लगीं, गर्दा (उसके सामने ही दोष कथन) करने लगीं, कितनीक दासियाँ उसे क्रोधित करने लगीं—चिढ़ाने लगीं, कोईकोई मुह मटकाने लगीं, कोई-कोई उपहास करने लगीं, कोई उंगलियों से तर्जना करने लगीं, कोई ताड़ना करने लगी और किसी-किसी ने अर्धचन्द्र देकर उसे बाहर कर दिया। तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली की दासियों द्वारा यावत् गर्दा की गई और अवहेलना की गई वह चोक्खा एकदम क्रुद्ध हो गई और क्रोध से मिसमिसाती हुई विदेहराजवरकन्या मल्ली के प्रति द्वेष को प्राप्त हुई / उसने अपना आसन उठाया और कन्याओं के अन्तःपुर से निकल गई / वहाँ से निकलकर मिथिला नगरी से भी निकली और परिव्राजिकाओं के साथ जहाँ पंचाल जनपद था, जहाँ कम्पिल्यपुर नगर था वहाँ आई और बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों राजकुमारोंऐश्वर्यशाली जनों आदि के सामने यावत् अपने धर्म की-दानधर्म, शौचधर्म, तीर्थाभिषेक आदि की प्ररूपणा करने लगी। ११७-तए णं से जियसत्तू अन्नया कयाई अंतेउरपरियालसद्धि संपरिवुडे एवं जाव [सोहासणवरगए यावि] विहरइ। तए णं सा चोक्खा परिवाइयासपरिवडा जेणेव जियसत्तुस्स रण्णो भवणे, जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जियसत्तजएणं विजएणं वद्धावेइ / तए णं से जियसत्तू चोक्खं परिवाइयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता चोक्खं परिव्वाइयं सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ / तत्पश्चात् जितशत्रु राजा एक बार किसी समय अपने अन्तःपुर और परिवार से परिवृत होकर सिंहासन पर बैठा था। तत्पश्चात् परिवाजिकाओं से परिवृत वह चोक्खा जहाँ जितशत्रु राजा का भवन था और 1. अष्टम अ. 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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