________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] [ 255 ११२-तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्खं परिवाइयं एवं वयासो-'तुभं णं चोक्खे ! किमूलए धम्मे पन्नत्ते ?' तए णं सा चोक्खा परिवाइया मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी--अम्हं णं देवाणुप्पिया ! सोयमूलए धम्ले पण्णवेमि, जं णं अम्हं किंचि असुई भवइ, तं णं उदएण य मट्टियाए य जाव' अविग्घेणं सग्गं गच्छामो।' तब विदेहराजवरकन्या मल्ली ने चोक्खा परिवाजिका से पूछा-'चोक्खा ! तुम्हारे धर्म क मूल क्या कहा गया है ?' तब चोक्खा परिव्राजिका ने विदेहराज-वरकन्या मल्ली को उत्तर दिया-'देवानुप्रिय ! मैं शौचमूलक धर्म का उपदेश करती हूँ। हमारे मत में जो कोई भी वस्तु अशुचि होती है, उसे जल से और मिट्टी से शुद्ध किया जाता है, यावत् [पानी से धोया जाता है, ऐसा करने से अशुचि दूर होकर शुचि हो जाती है / इस प्रकार जीव जलाभिषेक से पवित्र हो जाते हैं / ] इस धर्म का पालन करने से हम निविघ्न स्वर्ग जाते हैं। ११३-तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्ख परिव्वाइयं एवं वयासी-चोक्खा ! से जहानामए केइ पुरिसे रुहिरकयं बत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, अस्थि णं चोक्खा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं धोव्वमाणस्स काई सोही ?' 'णो इणठे समठे।' तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने चोक्खा परिवाजिका से कहा-'चोवखा! जैसे कोई अमुक नामधारी पुरुष रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोवे, तो हे चोक्खा ! उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कुछ शुद्धि होती है ?' परिवाजिका ने उत्तर दिया--'नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता।' ११४---'एवामेव चोक्खा ! तुब्भे णं पाणाइवाएणं जाव' मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि काई सोही, जहा व तस्स रुहिरकयस्स क्स्थस्स रुहिरेणं धोन्वमाणस्स / ' मल्ली ने कहा-'इसी प्रकार चोक्खा ! तुम्हारे मत में प्राणातिपात (हिंसा) से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से अर्थात् अठारह पापों के सेवन का निषेध न होने से कोई शुद्धि नहीं है, जैसे रुधिर से लिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि नहीं होती। ११५-तए णं सा चोक्खा परिवाइया मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए एवं वुत्ता समाणा संकिया कंखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था / मल्लीए णो संचाएइ किंचिवि पामोक्खमाइक्खित्तए, तुसिणीया संचिट्ठइ / तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली के ऐसा कहने पर उस चोक्खा परिवाजिका को शंका उत्पन्न हुई, कांक्षा, (अन्य धर्म की आकांक्षा) हुई और विचिकित्सा (अपने धर्म के फल में शंका) हुई 1. पंचम अ. 31 2. प्रो. सूत्र. 163 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org