________________ 442 ] [ ज्ञाताधर्मकथा १४९-तए णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लनारयस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म दोवईए देवीए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य मुच्छिए गढिए लुद्धे (गिद्धे) अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं जाव [अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता पुव्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठइ। तए णं पउमनाभस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पुव्वसंगइओ देवो जाव आगओ। 'भणंतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए कायब्वं / ' तए णं पउमणाभे] पुत्वसंगतियं देवं एवं वयासो—'एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे हत्थिणाउरे नयरे जाव उक्किदुसरीरा, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! दोवई देवि इहमाणियं / ' तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा, कच्छुल्ल नारद से यह अर्थ सुन कर और समझ कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन और लावण्य में मुग्ध हो गया, गृद्ध हो गया, लुब्ध हो गया और (उसे पाने के लिए) प्राग्रहवान् हो गया / वह पौषधशाला में पहुँचा / पौषधशाला को [पूज कर, अपने पूर्व के साथी देव का मन में ध्यान करके, तेला करके बैठ गया / उसका अष्टमभक्त जब पूरा होने पाया तो वह पूर्वभव का साथी देव पाया। उसने कहा-'देवानुप्रिय ! कहो, मुझे क्या करना है ?' तब राजा पद्मनाभ ने] उस पहले के साथी देव से कहा--'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में, यावत् द्रौपदी देवी उत्कृष्ट शरीर वाली है / देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी यहाँ ले पाई जाय / ' १५०-तए णं पुन्वसंगतिए देवे पउमनाभं एवं वयासो-'नो खलु देवाणुप्पिया ! एयं भूयं, भव्वं वा, भविस्सं वा, जं णं दोवई देवी पंच पंडवे मोत्तूण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धि ओरालाई जाव [माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणी] विहरिस्सइ, तहावि य णं अहं तव पियट्टयाए दोवई देवि इइं हव्वमाणेमि' त्ति कटु पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए लवणसमुदं मझमज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे गयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए / तत्पश्चात् पूर्वसंगतिक (पहले के साथी) देव ने पद्मनाभ से कहा .. 'देवानुप्रिय ! यह कभी हना नहीं होता नहीं और होगा भी नहीं कि द्रौपदी देवी पाँच पाण्डवों को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ मानवीय उदार कामभोग भोगती हुई विचरेगी / तथापि मैं तुम्हाग प्रिय (इष्ट) करने के लिए द्रौपदी देवी को अभी यहाँ ले पाता हूँ।' इस प्रकार कह कर देव ने पद्मनाभ से पूछा। पूछ कर वह उत्कृष्ट देव-गति से लवणसमुद्र के मध्य में होकर जिधर हस्तिनापुर नगर था, उधर ही गमन करने के लिए उद्यत हुग्रा। द्रौपदी-हरण १५१-तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणाउरे जुहिट्टिले राया दोवईए देवीए सद्धि आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था / 1. पाठान्तर--'हव्वमाणियं' / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org