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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी] उस काल और उस समय में, हस्तिनापुर नगर में युधिष्ठिर राजा द्रौपदी देवी के साथ महल की छत पर सुख से सोया हुआ था। १५२–तए णं से पुव्वसंगतिए देवे जेणेव जुहिट्ठिले राया, जेणेव दोवई देवी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोवईए देवीए ओसोवणियं दलयइ, दलइत्ता दोवइं देवि गिण्हइ, गिण्हित्ता ताए उक्किट्टाए जाव देवगईए जेणेव अमरकंका, जेणेव पउमणाभस्स भवणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवइं देवि ठावेइ, ठावित्ता ओसोणि अवहरइ, अवहरिता जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासो-'एस णं देवाणुप्पिया! मए हथिणाउराओ दोवई देवी इह हन्वमाणीया, तव असोगवणियाए चिट्ठइ, अतो परं तुमं जाणसि' त्ति कटु जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। उस समय वह पूर्वसंगतिक देव जहाँ राजा युधिष्ठिर था और जहाँ द्रौपदी देवी थी, वहाँ र उसने द्रौपदी देवी को अवस्वापिनी निद्रा दी–अवस्वापिनी विद्या से निद्रा में सुला दिया। द्रौपदी देवी ग्रहण करके, देवोचित उत्कृष्ट गति से अमरकंका राजधानी में पद्मनाभ के भवन में प्रा पहुँचा / आकर पद्मनाभ के भवन में, अशोकवाटिका में, द्रौपदी देवी को रख दिया / रख कर अवस्वापिनी विद्या का संहरण किया / संहरण करके जहाँ पद्मनाभ था, वहाँ आया। आकर इस प्रकार बोला-'देवानुप्रिय ! मैं हस्तिनापुर से द्रौपदी देवी को शीघ्र ही यहाँ ले पाया हूँ। वह तुम्हारी अशोकवाटिका में है / इससे आगे तुम जानो।' इतना कह कर वह देव जिस ओर से आया था उसी ओर लौट गया। विवेचन--प्रस्तुत प्रागम में तथा अन्य अन्य कथानकप्रधान आगमों में भी जहाँ गति की तीव्रता प्रदर्शित करना अभीष्ट होता है, वहाँ गति के साथ कोई न कोई विशेषण लगाया गया है / यहाँ 'उक्किट्ठाए देवगईए' में 'देव' यह विशेषण है / इसका अभिप्राय यह है कि तीव्र और मन्द, ये शब्द सापेक्ष हैं। इन शब्दों से किसी नियत अर्थ का बोध नहीं होता / एक बालक अथवा अतिशय वृद्ध की अपेक्षा जो गति तीव्र कही जा सकती है, वहीं एक बलवान् युवा की अपेक्षा मन्द भी हो सकती है / साइकिल की तीव्र गति मोटर की अपेक्षा मंद है और वायुयान की अपेक्षा मोटर की गति मन्द है / अतएव तीव्रता की विशेषता दिखलाने के लिए ही यहाँ 'उत्कृष्ट देवगति से' ऐसा कहा गया है / तात्पर्य यह है कि यहाँ देवगति की अपेक्षा से ही तीव्रता समझना चाहिए, मेंढक या मनुष्यादि की अपेक्षा से नहीं / अन्यत्र भो यही प्राशय समझना चाहिए। १५३-तए णं सा दोवई देवी तओ मुहत्तंतरस्स पडिबुद्ध समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपच्चभिजाणमाणी एवं क्यासी-नो खलु अम्हं एस सए भवणे, णो खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण णज्जइ णं अहं केणई देवेण वा, दाणवेण वा, किपुरिसेण वा, किन्नरेण वा, महोररोण वा, गंधवेण वा, अन्नस्स रण्णो असोगवणियं साहरिय' त्ति कटु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ। __ तत्पश्चात् थोड़ी देर में जब द्रौपदी देवी की निद्रा भंग हुई तो वह उस अशोकवाटिका को पहचान न सकी / तब मन ही मन कहने लगी- 'यह भवन मेरा अपना नहीं है, वह अशोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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