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________________ 444] [ज्ञाताधर्मकथा वाटिका मेरी अपनी नहीं है / न जाने किसी देव ने, दानव ने, किंपुरुष ने, किन्नर ने, महोरग ने, या गन्धर्व ने किसी दूसरे राजा की अशोकवाटिका में मेरा संहरण किया है।' इस प्रकार विचार करके वह भग्न-मनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी। पद्मनाभ का द्रौपदी को भोग-आमंत्रण १५४-तए णं से पउमणाभे राया पहाए जाव सव्वालंकारविभूसिए अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया, जेणेव दोवई देवी, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता दोवई देवि ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी-किं णं तुम देवाणुप्पिए ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि ? एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! मम पुत्वसंगतिएणं देवेणं जंबुद्दीवाओ दीवाओ, भारहाओ यासाओ, हथिणाउराओ नयराओ, जुहिटिलस्स रण्णो भवणाओ साहरिया, तं मा णं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा जाव शियाहि / तुमं मए सद्धि विपुलाई भोगभोगाई जाव [ जमाणी] विहराहि / ' तदनन्तर राजा पद्मनाभ स्नान करके, यावत् सब अलंकारों से विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत होकर, जहाँ अशोकवाटिका थी और जहाँ द्रौपदी देवी थी, वहाँ प्राया / आकर उसने द्रौपदी देवी को भग्नमनोरथ एवं चिन्ता करती देख कर कहा-'देवानुप्रिये ! तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो? देवानुप्रिये ! मेरा पूर्वसांगतिक देव जम्बूद्वीप से, भारतवर्ष से, हस्तिनापुर नगर से और युधिष्ठिर राजा के भवन से संहरण करके तुम्हें यहाँ ले आया है / अतएव देवानुप्रिये ! तुम हतमनःसंकल्प होकर चिन्ता मत करो / तुम मेरे साथ विपुल भोगने योग्य भोग भोगती हुई रहो। १५५-तए णं सा दोवई देवी पउमणाभं एवं वयासी---‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वारवईए नयरीए कण्हे णामं वासुदेवे मम पियभाउए परिवसइ, तं जइ णं से छह मासाणं ममं कूवं नो हव्वमागच्छइ तए णं अहं देवाणुप्पिया ! जं तुमं वदसि तस्स आणा-ओवाय-वयणणिद्देसे चिट्रिस्सामि / ' तब द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ से इस इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में द्वारवती नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव मेरे स्वामी के भ्राता रहते हैं / सो यदि छह महीनों तक वे मुझे छडाने--सहायता करने या वापिस ले जाने के लिए यहाँ नहीं पाएंगे तो मैं है प्रिय ! तुम्हारी आज्ञा, उपाय, वचन और निर्देश में रहूँगी, अर्थात् अाप जो कहेंगे, वही करूंगी।' १५६-तए णं से पउमे राया दोवईए एयमट्ठ पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता दोवई वि कण्णंतेउरे ठवेइ / तए णं सा दोवई देवी छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ। तब पद्मनाभ राजा ने द्रौपदी का कथन अंगीकार किया। अंगीकार करके द्रौपदी देवी को कन्याओं के अन्तःपुर में रख दिया। तत्पश्चात् द्रौपदी देवी निरन्तर षष्ठभक्त और पारणा में पायंबिल के तपःकर्म से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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