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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] पर स्वर्ण-कलश आरोपित करने के समान है। जीवन-पर्यन्त आन्तरिक शत्रुओं के साथ किए गए संग्राम में अन्तिम रूप से विजय प्राप्त करने का महान अभियान है / इस अभियान के समय वीर साधक मृत्यु के भय से सर्वथा मुक्त हो जाता है-- संसारासक्तचित्तानां मृत्यु त्यै भवेन्नृणाम् / मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञान-वैराग्यवासिनाम् // जिनका मन संसार में संसार के राग-रंग में उलझा होता है, उन्हें ही मृत्यु भयंकर जान पड़ती है, परन्तु जिनकी अन्तरात्मा सम्यग्ज्ञान और वैराग्य से वासित होती है, उनके लिए वह आनन्द का कारण बन जाती है। साधक की विचारणा तो विलक्षण प्रकार की होती है / वह विचार करता है-- __ कृमिजालशताकीणे जर्जरे देहपञ्जरे। भिद्यमाने न भेत्तव्यं यतस्त्वं ज्ञानविग्रहः / / सैकड़ों कीड़ों के समूहों से व्याप्त शरीर रूपी पीजरे का नाश होता है तो भले हो। इसके विनाश से मुझे भयभीत होने की क्या आवश्यकता है ! इससे मेरा क्या बिगड़ता है ! यह जड़ शरीर मेरा नहीं है / मेरा असली शरीर ज्ञान है--मैं ज्ञानविग्रह हूँ / वह मुझ से कदापि पृथक् नहीं हो सकता। _समाधिमरण के काल में होने वाली साधक को भावना को व्यक्त करने के लिए कहा गया है एगोऽहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ / एवमदीणमनसो अप्पाणमणुसासइ // एगो मे सासओ अप्पा नाणदसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा // संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्खपरम्परा / तम्हा संजोगसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरिअं॥ मैं एकाकी हैं। मेरे सिवाय मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी अन्य का नहीं हैं। इस प्रकार के विचार से प्रेरित होकर, दीनता का परित्याग करके अपनी आत्मा को अनुशासित करे / यह भी सोचे-ज्ञान और दर्शनमय एक मात्र शाश्वत आत्मा ही मेरा है। इसके अतिरिक्त संसार के समस्त पदार्थ मुझ से भिन्न हैं—संयोग से प्राप्त हो गए हैं और बाह्य पदार्थों के इस संयोग के कारण ही जीव को दुःखों की परम्परा प्राप्त हुई है-अनादिकाल से एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा जो दुःख उपस्थित होता रहता है, उसका मूल और मुख्य कारण पर पदार्थों के साथ आत्मा का संयोग ही है। अब इस परम्परा का अन्त करने के लिए मैंने मन, वचन, काय से इस संयोग का त्याग कर दिया है। इस प्रकार की आन्तरिक प्रेरणा से प्रेरित होकर साधक समाधिमरण अंगीकार करता है किन्तु मानवजीवन अत्यन्त दुर्लभ है। पागम में चार दुर्लभ उपलब्धियाँ कही गई हैं / मानव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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