________________ 476 ] [ ज्ञाताधर्मकथा थोड़ी देर बाद वह निर्यामक लब्धमति, लब्धश्रुति, लब्धसंज्ञ और अदिङ मूढ हो गया। अर्थात् उसकी बुद्धि लौट आई, शास्त्रज्ञान जाग गया; होश आ गया और दिशा का ज्ञान भी हो गया। तब उस निर्यामक ने उन बहुसंख्यक कुक्षिधारों, कर्णधारों, गम्भिल्लकों और सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा---'देवानुप्रियो ! मुझे बुद्धि प्राप्त हो गई है, यावत् मेरी दिशा-मूढता नष्ट हो गई है / देवानुप्रियो ! हम लोग कालिक द्वीप के समीप आ पहुँचे हैं / वह कालिक द्वीप दिखाई दे रहा है।' ८-तए णं ते कुच्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य संजत्ताणावावाणियगा य तस्स निज्जामयस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म हट्ठ-तुट्ठा पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छति, उवाच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता एगट्टियाहि कालियदीवं उत्तरंति / उस समय वे कुक्षिधार, कर्णधार, गभिल्लक तथा सांयात्रिक नौकावणिक् उस निर्यामक (खलासी) की यह बात सुनकर और समझकर हृष्ट-तुष्ट हुए। फिर दक्षिण दिशा के अनुकूल वायु की सहायता से वहाँ पहुँचे जहाँ कालिक द्वीप था। वहाँ पहुँच कर लंगर डाला / लंगर डाल कर छोटी नौकाओं द्वारा कालिक द्वीप में उतरे। कालिकद्वीप के आकर और अश्व ९-तत्थ गं बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति / कि ते ? हरिरेणुसोणिसुत्तगा आईणवेढो / तए णं ते आसा ते वाणियए पासंति, पासित्ता तेसि गंधं अग्घायंति, अग्घाइत्ता भीया तत्था उम्विग्गा उब्धिग्गमणा तओ अणेगाई जोयणाई उम्भमंति, ते णं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया निब्भया निरुश्विग्गा सुहंसुहेणं विहरति / उस कालिक द्वीप में उन्होंने बहुत-सी चाँदी की खाने, सोने की खाने, रत्नों की खाने, हीरे की खाने और बहुत से अश्व देखे / वे अश्व कैसे थे? वे पाकीर्ण अर्थात् उत्तम जाति के थे / उनका वेढ अर्थात् वर्णन जातिमान् अश्वों के वर्णन के समान यहाँ समझ लेना चाहिए। वे अश्व नीले वर्ण वाली रेणु के समान वर्ण वाले और श्रोणिसूत्रक अर्थात् बालकों की कमर में बांधने के काले डोरे जैसे वर्ण वाले थे। (इसी प्रकार कोई श्वेत, कोई लाल वर्ण के थे)। उन अश्वों ने उन वणिकों को देखा। देख कर उनकी गंध सूधी। गंध सूघ कर वे अश्व भयभीत हुए, त्रास को प्राप्त हुए, उद्विग्न हुए, उनके मन में उद्वेग उत्पन्न हुग्रा, अतएव वे कई योजन दूर भाग गये। वहां उन्हें बहुत-से गोचर (चरने के खेत-चरागाह) प्राप्त हुए / खूब घास और पानी मिलने से वे निर्भय एवं निरुद्वेग होकर सुखपूर्वक वहाँ विचरने लगे। विवेचन-अभयदेव कृत टीका वाली प्रति में तथा अन्य प्रतियों में 'हरिरेणुसोणियसुत्तगा आईणवेढो' इतना ही संक्षिप्त पाठ ग्रहण किया गया है, किन्तु टीका में अश्वों के पूरे वेढ का उल्लेख है / अंगसुत्ताणि (भाग 3) में भी वह उद्धृत है / तदनुसार विस्तृत पाठ इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org